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भोजप्रवन्धः


 एक वार राजा ने यान पर चढ़कर जाते हुए मार्ग में किसी तपस्वी को देखकर उससे कहा---'आप जैसे तपस्वियों का दर्शन भाग्याधीन होता है। आपका ठाँव कहाँ है और भोजन के निमित्त आप किनसे प्रार्थना करते हैं ?

 ततः स राजवचनमाकण्यं तपोनिधिराह--

'फलं स्वेच्छालभ्यं प्रतिवनमखेदं क्षितिरुहां
पयः स्थाने स्थाने शिशिरमधुरं पुण्यसरिताम् ।
मृदुस्पर्शा शय्या सुललितलतापल्लवमयी
सहन्ते सन्तापं तदापि धनिनां द्वारि कृपणाः ।। २७० ।।

 राजन्, वयं कमपि नाभ्यर्थयामः, न गृह्णीमश्च' इति । राजा तुष्टो नमति ।  राजा के वचन सुनकर उस तपोधन ने कहा-

'विना कष्ट ही वृक्षों के फल वन-वन स्वेच्छा से मिल जाते;
शीतल, मधुर पुण्य नदियों का ठाँव-गाँव जल हम पा जाते;
लता-पल्लवों की मृदु कोमल चिकनी शय्या पर सोते हैं,
कृपण व्यक्ति धनियों के द्वारे तो भी ताप-तप्त होते है।
हे राजा, न हम किसी से प्रार्थना करते हैं, न लेते हैं।' तुष्ट हो
राजा ने प्रणाम किया।

 तत उत्तरदेशादागत्य कश्चिद्राजानं स्वस्ति' इत्याह । तं च राजा पृच्छति-'विद्वन् , कुत्र ते स्थितिः' इति ।

तदनंतर उत्तर देश से एक विद्वान ने आकर राजा से 'स्वस्ति' कहा । राजा ने उससे पूछा-'हे विद्वान्, तुम्हारा स्थान कहाँ है ?'

विद्वानाह-
'यत्राम्बु निन्दत्यमृतमन्त्यजाश्च सुरेश्वरान् ।
चिन्तामणिं च पापारणास्तत्र नो वसतिः प्रभो' ।। २७१ ॥

विद्वान् वोला-
जहाँ का जल अमृत से श्रेष्ठ, देवराजों-से अंत्यज दास;
दिव्य चितामणिसे पाषाण, वहीं है देव, हमारा वास ।