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भोजप्रबन्धः

  स आह–'वत्स, शाकल्य इति मे नाम । मयैकशिलानगर्या आगम्यते भोजं प्रति द्रविणाशया । वत्स, त्वयानुक्तमपि दुःखं त्वयि ज्ञायते कीदृशं तद्वद ।'

 उसने कहा--'बच्चे, मेरा नाम. शाकल्य है । मैं एक-शिला नगरी से द्रव्य की आशा से भोज के पास आया हूँ। बेटे, तुमने कहा नहीं हैं, फिर भी तुम दुःखी हो, यह ज्ञात हो रहा है। वह दुःख कैसा है ? कहो।'

 ततो भास्करः प्राह--'तात, किं ब्रवीमि दुःखम् ।

क्षुत्त्क्षामाः शिशवः शवा इव भृशं मन्दाशया बान्धवा
 लिप्ता झर्झरधर्घरी जतुलवैर्नों मां तथा बाधते ।
गेहिन्या त्रटितांशुकं घटयितुं कृत्वा सकाकुस्मितं
 कुप्यन्ती प्रतिवेश्म लोकगृहिणी सूचि यथा याचिता' ॥२१॥

 राजा श्रुत्वा सर्वाभरणान्युत्तार्य तस्मै दत्त्वा प्राह-'भास्कर, सीदन्त्यतीव ते बालाः । झटिति देशं याहि ।'

 तो भास्कर वोला--'तात, क्या कहूँ अपना दुःख--

 भूख से क्षीण बच्चे शव के समान हो गये हैं, भाई-बंधु पर्याप्त निम्न विचार के हैं । लाख के टुकड़े से. जोड़ी हुई फूटी गागर मुझै उतना कष्ट नहीं देती, जितना कि फटा कपड़ा सिलने के लिए मेरी घरनी के द्वारा सूई माँगे जाने पर बनावटी रूप से मुस्कुरा कर घर-घर में क्रुद्ध होती लोगों की घरनियाँ।

 यह सुनकर सब आभूषण उतार उसे देकर राजा ने कहा--'भास्कर, तुम्हारे बच्चे बड़ा कष्ट पा रहे हैं । झट अपने देश को चले जाओ।'

 ततः शाकल्यः प्राह -

अत्युद्धृता वसुमती दलितोऽरिवर्गः
 क्रोडीकृता बलवता बलिराजलक्ष्मीः ।
एकत्र जन्मनि कृतं यदनेन यूना
 जन्मत्रये तदकरोत्पुरुषः पुराण': ।। २१६ ।।

 ततो राजा शाकल्याय लक्षत्रयं दत्तवान ।

 तब शाकल्य ने कहा--