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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/११५

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भोजप्रवन्धः

 वसुमती धरती का उद्धार किया, शत्रुओं को दल डाला और बली राजाओं की लक्ष्मी को अपनी गोद में ला घरा, सो इस बलवान् युक्त ( भोजराज) ने एक ही जन्म में वह सब कर डाला, जो पुराण पुरुष विष्णु ने तीन जन्म में किया । ( वाराहावतार में धरती का उद्धार, रामादि अवतार में शत्रुः नाश और वामनावतार में बलिराज का राज्य हरण ) ।

 तो राजा ने शाकल्य को तीन लाख मृद्राएँ दीं।

 अन्यदा राजा मृगयारसेन विचरंस्तत्र पुरः समागतहरिण्यां बाणेन विद्धायामपि वित्ताशया कोऽपि कविराह-

'श्रीभोजे मृगयां गतेऽपि सहसा चापे समारोपिते-
ऽप्याकर्णान्तगतेऽपि मुष्टिगलिते बाणेऽङ्गलग्नेऽपि च ।
स्थानान्नैव पलायितं न चलितं नोत्कम्पितं नोत्प्लुतं
. मृग्या मद्वशगं करोति दायितं कामोऽयमित्याशया' ॥ २१७ ॥

 राजा तस्मै लक्षत्रयं प्रयच्छति । एक और वार आखेट के लिए विचरण करते राजा ने संमुख आ पड़ी हिरनी को बाण से वींघ दिया, तो वहाँ धन की आशा से एक कवि ने कहा-

 आखेट को गये श्रीभोजराज ने झट से धनुष पर वाण चढ़ाया, कान तक खींचा और मुट्ठी से निकल कर वह बाण अंग में जा लगा, किंतु इतना सब होते भी हिरनी न तो स्थान छोड़ कर भागी, न चली, न कांपी, न कूदी- वह यही आशा करती रही कि यह कामदेव मेरे स्वामी को मेरे वश में कर रहा है।

 राजा ने उसे तीन लाख दिये ।

 अन्यदा सिंहासनमलकुर्वाणे श्रीभोजनृपतौ द्वारपाल आगत्याह- 'देव, जाह्नवीतोरवासिनी काचन वृद्धब्राह्मणी विदुषी द्वारि तिष्ठति । राजा-'प्रवेशय ।' आगच्छन्ती राजा प्रणमति । सा तं 'चिरं जीव' इत्युक्त्वाह-

"भोजप्रतापाग्तिरपूर्व एष जागर्ति भूभृत्कटकस्थलीषु ।
 यस्मिन्प्रविष्टे रिपुपार्थिवानां तृणानि रोहन्ति गृहाङ्गणेषु' ।। २१८ ॥