पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/११३

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
१०६
भोजप्रबन्धः


(१६) प्रभूतदानस्य कतिपयकथाः

 एकदा राजा धारानगरे विचरन्क्वचिच्छिवालये प्रसुप्तं पुरुपद्वयमपश्यत् । तयोरेको विगतनिद्रो वक्ति-'अहो, ममास्तरासन्न एव कस्त्वं प्रसुप्तोऽसि जागर्षि नो वा ।'

 एक बार धारानगर में विचरण करते हुए राजा ने किसी शिवालय में सोते दो पुरुषों को देखा । उनमें जागकर एक ने कहा--'मेरे बिछौने के निकट स्थित तुम कौन हो, सोते हो या जागते हो?'

 ततस्त्वपर आइ--'विप्र, प्रणतोऽस्मि । अहमपि ब्राह्मणपुत्रस्त्वामत्र प्रथमरात्रौ शयानं वीक्ष्य प्रदीप्ते च प्रदीपे कमण्डलूपवीतादिभिर्ब्राह्मणं ज्ञात्वा भवदास्तरासन्न इवाहं प्रसुप्तः । इदानीं त्वद्गिरमार्ण्य प्रबुद्धोऽस्मि ।'

 तो दूसरा बोला-'हे ब्राह्मण, प्रणाम करता हूँ। मैं भी ब्राह्मण का बेटा हूँ; आपको यहाँ पहिली रात में ही सोया देखा और जलते दीपक में कमंडलु और यज्ञोपवीत आदि देख' आपको ब्राह्मण समझ कर आपके विस्तर के ही निकट मैं भी सो गया। इस समय आपकी वाणी सुनकर जागा हूँ।'

 प्रथमः प्राह-'वत्स, यदि त्वं प्रणतोऽसि ततो दीर्घायुर्भव । वद कुत आगम्यते, किं ते नाम, अत्र च किं कार्यम्।'

 पहिला बोला---'वत्स, तुम प्रणाम करते हो तो दीर्घायु होओ । कहो कहाँ से आते हो, तुम्हारा क्या नाम है और यहाँ क्या काम है ?'

  द्वितीयः प्राह-विप्र, भास्कर इति मे नाम । पश्चिमसमुद्रतीरे प्रभास-तीर्थ समीपे वसतिर्मम । तत्र भोजस्य वितरणं बहुभिर्व्यावर्णितम् । ततो याचितुमहमागतः । त्वं मम वृद्धत्वापितृकल्पोऽसि । त्वमपि सुपरिचयं वद ।

 दूसरे ने कहा-'ब्राह्मण, मेरा नाम भास्कर है। पश्चिमी समुद्र के. किनारे प्रभास तीर्थ के निकट मेरा निवासस्थान है। वहाँ भोज के दान करने के संबंध में अनेक लोगों ने वर्णन किया । सो मैं याचना करने आया हूँ। आप वृद्ध होने के कारण पिता समान हैं। आप भी अपना परिचय दीजिए।'