१५४८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ग्राह्यमिति नियमेन षड़ घटयः समुचिताः । एवं तत्केन्द्रज्यावशतः क्रमेण रविमन्द फलकलाः स्वाष्टांशोना सवितु' रित्याचायक्तितः । मंफक =३० ५७ ८२ १०२ ११८ १२८ १३१ द्वादशहृता घटयः =२३० ४|४५ ६५० ८३० ९५० १०४० १०५५ अन्तराणि=२।३० २१५ २५ १४० १२० ०५० ०१५ आचार्येणैतेषां स्थाने स्वल्पान्तरात् क्रमेणै २२२२११० ता अन्तरा मका निरवयवघटिकाः पठिताः ।।२१।। हि. भा.-एक ( पाद में “ २८ नक्षत्रात्मक केन्द्र संख्या = ७, वहां प्रतिनक्षत्र चन्द्र मन्दफलघटी से प्राप्त अन्तरखण्ड 'पञ्चेषु पञ्च' इत्यादि पठित है । एवं सूर्य में सूर्याच्च घटाकर तथा चन्द्र के केन्द्र की तरह केन्द्र बनाने पर प्रतिनक्षत्र रविमन्दफल घटी से प्राप्त अन्तरखण्ड द्विद्विीत्यादि के बराबर समझना चाहिये। उपपत्ति । एक चक्र में २८ चन्द्रकेन्द्र नक्षत्र कल्पित हैं । इसलिये वृत्त के चतुर्थाश पाद ६० अंश के सात नक्षत्र हैं । हर एक नक्षत्र में स्वल्पान्तर के १३ भाग हैं । अतः भानि भागाः =१३ २६ ३६ - ५२ ६५ , ७६ - ४७ । केन्द्रज्या = ३४ ६५ ४ ११७ १३५ १४६ १५० मन्दफलकला ==६८ १३० १८८ २३४ २७० २४२ ३०० द्वादशहृताघटिका=४५० १०५० १५४० १९३० २२३० २४२० २५० अन्तराणि =५४० ५॥१० ४१० ३५० ३० १५० ०४० यहां आचार्यों ने इन स्थानों में स्वल्पान्तर से अन्तररूप निरवयव घटी को क्रम से ५ । ५ । ५ । ४ । ३ । २ । १ अहण किया है । पहले स्थान में बड़ी स्थूलता है। वस्तुतः अर्धाधिके रूपं ग्राह्य’ इस नियम से ६ घटी समुचित हैं । इस तरह केन्द्रज्या पर क्रम से 'विमन्दफल कला। स्वाष्टांशोन' इत्यादि आचार्य की उक्ति से जानना चाहिये।
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