पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/४६०

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ध्यानग्रहोपदेशाध्यायः १५४९ में. फक == ३० ५७ ८२ १०२ ११८ १२८ १३१ । द्वादशभक्त घटी = २३० ४४५ ६५० ८।३० ६५० १०४० १०५५ अन्तराणि = २३० २१५ २५ १४० १।३० ०५० ०॥१५ आचार्य स्वल्पान्तर से इन सबों के स्थान पर (२।२।२।२।११०) इतनी अन्तरघटो स्वीकार की है । इदानीं तिथिसाधनमाह। अकनचन्द्रलिप्ताः रवयमस्वरभाजिताः फलं तिथयः। गतगम्ये षष्टिगुणे भुक्तवन्तरभाजिते घटिकाः ॥ २२ ॥ सु. भा--स्पष्टार्थे । स्पष्टाधिकारेण स्फुटोपपत्तिश्च ।।२२।। हि. भा–चन्द्रकला में से रविकला को घटाकर ७२० से भाग देने से फल तिथि होती है । गत और गम्य तिथि को ६० से गुणाकर गत्यन्तर से भाग देने पर क्रम से गत और गम्य तिथि घटी होती है। उपपत्ति । उपपति स्पष्टाधिकार में कही गई है । इदानीं भयोगसाधनमाह । भान्यदिवन्यादीनि प्रहलिप्ताः खखवसूद्धृता लब्धम् । भुक्तिहृते गतगम्ये दिवसाः षट्चाहते घटिकाः ॥ २३ ॥ वचन्द्रयोगलिप्ताः खखवसुभिर्भाजिता फलं योगः गतगम्ये षष्टिगुणे गतयो निभाजिते घटिकाः ।। २४ ।। सु. भा–स्पष्टार्थमु स्पष्टाधिकारस्य ३३ श्लोकसमा प्रथमार्या । द्वितीयार्थी तथैव टीका विलोक्या ।।२३-२४॥ हि. भा–प्रह कला को खखवसूनृता (८००) से भाग देने पर लऊिध अश्विन्यादि नक्षत्र होता है । गत और गम्य नक्षत्र को साठ से गुणाकर भुक्ति से भाग देने पर लब्धि क्रम से गत और गम्यघटी होती है । २४ वें श्लोक का अर्थ स्पष्ट ही है । उपपति । यहां २३२४ दोनों श्लोकों की युक्ति स्पष्टाधिकारोक्त ६३ श्लोकों की सु० भा० या वि०भा० देखनी चाहिये।