यन्त्राध्यायः १४९१ T गया है उसमें सूत्र के एक अग्र को बांध कर बहुत लम्बे सुत्र को वेष्टित (लपटाना) करना वह सूत्र पर्यय सूत्र कहलाता है। उसमें कील के ऊपर गया हुआ उस पयंयसूत्र के द्वितीयाग्र में अलाबु (तुम्ब) को बाँध देना। तब पूर्ववत् नलक के नीचे छेद में जल देकर जल धारा का उस तरह प्रयोग करना चहिए जिससे उसके आघात से नीचे जाने वाले तुम्ब से एक नाड़ी में चक्र का एक भ्रमण हो । एवं जलस्राव से नाड़िका उत्पन्न होती है यह आचार्य का अभिप्राय है । सिद्धान्तशिरोमणि में "ताम्रादिमयस्यांकुशरूपनलस्याम्बुपूर्णस्य । एकं कुण्डजलान्तद्वितीयमगं त्वधो मुखो च बहिः" इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से भास्कराचार्य ने स्वयं वह यन्त्र के सम्बन्ध में अपना विचार व्यक्त किया है । । इसका अर्थ ताम्बा आदि धातुमय अंकुशरूप टेढ़ा किये हुए जलसे भरे हुए नल के एक सिरे को जल भाण्ड (वर्तन) में और दूसरे सिरे को बाहर यदि एक ही समय में खोल देते हैं तब सम्पूर्ण में भाण्ड बर्तन) स्थित जल नल के द्वारा बाहर गिर जाता है । जैसे कमल के नल को जलकुण्ड में छोड़ने से जलपूर्णछिद्र के एक अग्र को अधोमुख भाण्ड से बाहर यदि शीघ्र धरते हैं तो सम्पूर्ण भाण्डस्थित जल नल के द्वारा बाहर चला जाता है । चत नेमी (परिधि) में घटी को बांध कर जलयन्त्रवल दो आषाराक्ष संस्थित उस तरह रखना चाहिये जिससे नलक से गिरा हुआ जल उस के घटी मुख में पतित हो । एवं पूर्णघटी से आकृष्ट उसके भ्रमण को कौन रोक सकता है ।५६। इदानीं पुनविशेषमध्यायोपसंहारं चाह । करणैज्र्याक्षिप्रचलनमेवं शरमोक्षणं खशब्दाश्च । अध्यायो द्वाविशो यन्त्र ष्वाद्यास्त्रिपञ्चाशत् ॥५७ सुभएवं करणैर्जलधारा प्रवाहसाधनैर्धनुज्र्यायाः क्षिप्रचलनं शीघ्र- चलनं भवति येन शीघ्र शरमोक्षणं शरप्रक्षेपणं च भवति । जलधाराप्रवाह विकारेणैव खशब्दा मेघगर्जनानि भवन्तीति । शेषं स्पष्टार्थम् ॥५॥ मधुसूदनसूनुनोदितो यस्तिलकः श्रीपृथुनेह जिष्णुजोक्ते हृदि तं विनिधाय नूतनोऽयं रचितो यन्त्रविधौ सुधाकरेण । इति श्रीकृपालुदत्त सूनुसुधाकरद्विवेदिविरचिते ब्राह्मस्फुटसिद्धांतनूतनतिलके यन्त्राध्यायो द्वाविंशः ॥२२॥ वि. भा–एवं करणैः (जलधाराप्रवाहसाधनैः) धनुज्र्यायाः शीघ्रचलनं भवति येन शरमोक्षणं (शरप्रक्षेपणं) च भवति । जलधाराप्रवाहविकारेणैव खशब्दाः (मेघगर्जनानि भवन्ति । यन्त्राध्याये त्रिपञ्चाशदाद्याः सन्ति । अयं
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