यन्नाध्यायः १४८६ । ऋतुविशेषे लघुगुरुकाष्ठमयं चक्र . स्वल्पाधिकपारदसहितारं विरचयेत् । भास्कराचार्येण “उत्कीयं नेमिमथवा परितो मदनेन संलग्नस् । तदुपरि तालदलाधं कृत्वा सुषिरे रसं क्षिपेत् तावत् । यावद्रसंकपादेव क्षिप्तजलं नान्यतो याति । पिहितच्छिद्र तदतश्चक्र भ्रमति स्वयं जलाकृष्टस्। सिद्धान्तशिरोमणौ स्वयंवहमन्त्रसम्बन्धे एवमभिहितम् । अस्य व्याख्या यन्त्रनेमि भ्रमयन्त्रेण समन्तादुत्कीर्यं द्वचगुलमात्र सुषिरस्य वेधो विस्तारश्च यथा भवति ततस्तस्य सुषिरस्योपरि तालपत्रादिकं मदनादिना संलग्नं कार्यम् । तदपि चक्र द्वयाधाराक्षस्थितं कृत्वोपरि नेम्यां तालदलं विद्ध वा सुषिरे रसस्तावत् क्षेप्यो यावत् सुषिरस्याधोभागो मुद्रितः । पुनरेकपाश्र्वे जलं प्रक्षिपेत् । तेन जलेन रसेन द्रवोऽपि रसो गुरुत्वात् परतः सारयित; न शक्यते । अतो मुद्रितच्छिद्र तच्चक्र जलेनाकृष्टं स्वयं भ्रमतीति ।।५५।। अब बिशेष कहते हैं । हि. भा.-छिद्र में अपनी वृद्धि से पारा देकर चक्र को इस तरह स्थापन करना चाहिये जिससे कालानुसारी क्षितिजानुकार वा कध्वघर जलयन्त्रवत् इष्टमान से भ्रमण करता है । एक न्नभण से जैसे इष्टमान के तुल्यकाल को उत्पादन करे वेसे ऋतु विशेष में लघुगुरु काष्ठमय चक्र को जिसमें स्वल्प-अधिक पारे वाला आरा हो बनाना चाहिये। सिद्धान्तशिरोमणि में ‘उत्कीयं नेमिमथवा परितो मदनेन संलग्नस् । तदुपरिंतालदलाचं कृत्वा सुषिरे रसं क्षिपेच तावच' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकानुसार भास्कराचार्य स्वयं इस यन्त्र के विषय में कहते हैं । इसका अर्थी यह हैयन्त्र की परिधि को चारों तरफ भ्रम यन्त्र (खरादने के यन्त्र) से इस प्रकार ठीक करना चाहिये कि छिद्र की ऊंचाई और विस्तार दो अंगुल रह जाय । अनन्तर उस छिद्र के ऊपर तालपत्रादि को चिपक देना चाहिये चक्र को दो आधाराक्ष (माघार घु) स्थित करके ऊपर नेमि (परिधि) में ताल पत्र को वेष कर छिद्र में पारे को तब तक ढरना .चाहिये जब तक छिद्र का अधोभाग पारे से मुद्रित छिप जाय) हो । फिर एक पाश्वं (बगल) में बल देना उस जल से द्रव (तरल) भी पारा गुरुत्व (भारीपन) के कारण चारों तरफ निकल नहीं सकता है, अतः वह चक्र जिसमें छिद्र मुद्रित है जल से आकृष्ट (खींचा गया) हो कर स्वयं भ्रमण करता है इति इदानीं पुर्नावशेषमाह । कीलस्योपरिगामिनि तत्पर्यसूत्रके धूतमलाबु लग्वन्नखके प्रक्षिप्य नाडिका स्रवति पानीये ॥५६॥
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