१४८८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते प्रविशति । अन्यभागे वाराग्रधावति । तेनाकृष्टं तत् स्वयं भ्रमतीति ।५३५४॥ अब स्वयंवहयन्त्र को कहते हैं । हि- भा.-घुकाष्ठमय चक्र यन्त्र बनाना चाहिये, जिसके आराओं में समान छिद्र हो तथा समान्तर हो, जिस चक्र यन्त्र के संश्लिष्ट (मुद्रित) छिद्र है । तथा आधे पारे से पूर्ण (भराहुआ) परिधि है । इस यन्त्र के मध्य में तिर्यक् रूप में कील स्थापन करना। चक्र को शाण चढ़ाने वाले चक्र की तरह दो आधार पर रखना चाहिये । क्यों कि आराओं के छिद्र में पारा ऊपर और नीचे से चूमता है इसलिये उससे प्रकृष्ट (खींचाहुआ) चक्र बराबर स्वयं (अपने ही आप) नमण करता है । यन्त्र की पालीगत अंकुश की आकृति (आकार स्वरूप की तरह पारे के प्रक्षेपण के लिये पारा ढालने के लिये धातु की वा काष्ट (लकड़ी) की बनी हुई चीज आरा शब्द से व्यवहृत है । सिद्धान्तशिरोमणि में ‘लघुदारुज समचक्र समसुषिराराः समान्तरा नेम्याम्'-इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित भास्करोक्त प्रकार आचार्योंक्त के अनुरूप ही है । भास्करोक्त श्लोक का तात्पर्य यह है । ग्रन्थि (गेठी-गिरह) लाथु दारु (लकड़ी) मय भ्रमसिद्ध (खरादा हुआ) चक्र में समप्रमाण के समछिद्र के सम तौल्य (सम वजन) के समान्तर पर आराओं को मेमी (परिधि) में जोड़ देना, वे नदी के हिलोड़ (पानी बहने के घुमाव) की तरह एक ही तरफ सबों को जोड़ना चाहिये । तब उन आराम के छिद्रो में पाराओं को उस तरह देना चाहिये जिससे छिद्र का आधा ही पूर्ण (g) हो, तब मुद्रित आरा के अग्र वाला वह चक्र शान चढ़ाने के चक्र के सदृश दो आधार पर स्थित होकर स्वयं घूमता है । यहां युक्ति यह है–पारा जहां एक भाग में आरा के मूल में प्रवेश करता है और अन्य भाग में आरा के अग्र में दौड़ता है, उससे आकृष्ट वह चक्र स्वयं भ्रमण करता है इति ।५३-५४ इदानीं विशेषमाह । छिद्र स्वधिया क्षिप्ता समं यथा पारदं भ्रमति । कालसममिष्टमानैश्चक्रसमुत्तानमूर्वं वा ॥५५।। सु. भा–छिद्र स्वबुद्ध्या समं पारदं क्षिप्त्वा तथा चक्रे स्थाप्यं यथा । कालसमं कालानुसारि समुत्तानं क्षितिजानुकारं वोध्र्वमूर्वाधारं जलयन्त्रवदिष्ट मानैभ्रमति । एकभ्रमणेन यथेष्टमानसमं कालमुत्पादयेत् तथा ऋतुविशेषे । लघुगुरुकाष्ठमयं चक्रम् स्वल्पाधिकपारदसहितारं विरचयेदिति ॥५५॥ वि. भा.–छिद्र स्वधिया (स्वबुद्धया), समं पारदं क्षिप्त्वा चक्र तथा स्थाप्यं यथा कालसमं (कालानुसारि) समुत्तानं क्षितिजानुकारं वोर्वे (ऊध्र्वाधरं जलयन्त्रवन्) इष्टमानैभ्रमति। एकभ्रमणेन यथेष्टमानसमं कालमुत्पादयेत्तथा
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