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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/३७९

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१४६८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अब प्रकारान्तर से गृहौच्च्यानयन को कहते है। हि. भा.-जिस धरातल में लम्बरूप ग्रहादि है उस धरातल में ऊध्र्वाधराकार अंगुलादि से अकुित एक शलाका स्थापन करना । दृष्टि को उसी धरातल में कहीं पर रखकर नलिका से या अन्य यष्टि से ग्रहादि का एक प्रदेश (जिसकी ऊँचाई विदित है) को वेध करना । नलिका वा अन्ययष्टि शलाका में जहां लगती है वहां से शलाका मूलपर्यन्त प्रथम शलाकां संज्ञक है । शलाका मूल दृष्टि स्थान का अन्तर दृष्टि समझनी चाहिये । पुनः उसी स्थान स्थित दृष्टि से ग्रहण को एक यष्टि से वेध करना। यह यष्टि पूर्व शलाका में जहां लगती है वहां से शलाकामूल पर्यन्त द्वितीय शलाका संज्ञक है । गृहादि के एक प्रदेश को प्रथम शलाकावश से गणना कर धारण करना ! इष्टशलाका से गृहौच्य को वेध कर द्वितीयशलाका समभनी चाहिये। तब ग्रह के प्रदेश के औच्च्यको द्वितीय शलाका से गुणा कर प्रथम शलाका से भाग देने से ग्रहौच्य होता है इति ॥३७॥ उपपत्ति । यहां संस्कृतोपमति में लिखित (१) क्षेत्र को देखिये । प्रक =गृहादि का औच्च्य (ऊंचाई, गप= शलाका। दृ=दृष्टिस्थान । कन=ज्ञातौच्च्य= (विदित ऊचाई) । कडू=भूमि=भू। मग=प्रथमशलाका। चग=द्वितीयशलाका । गदृ=दृष्टि संज्ञक==इह । ज्ञातौच्च्य.ट्ट तब कनट्सगमदृ दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं । प्रयमशलाका द्वितीयशलाका. =भ् । :. अकट्ट, चगद्द दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं । भूम द्वितीयशलाका. ज्ञातौञ्च्य. द्वितीयशलाका.ज्ञातौच्च्य प्रथमशलाकाद् प्रथमशलाका.ठ आचार्याक्त उपपन्न हुआ इति ।३७।। इदानीं परमतं खण्डयति यष्टधा हृताच्छलाका त्रिज्याघाताद्धनुर्गुहान्तरकम् । यैरुक्त मूखस्ते यतो न दृष्टान्तरं इया ॥३८॥ सु. भा--पूर्वश्लोकोक्तविधिना गृहाप्रवेषे ऽन्ययष्टिचैत्र शलाकायां लग्ना , तस्माद् दृष्टिस्थानपर्यन्तं कथं एव यष्टिः । द्वितीयशलाका कोटिः। दृष्टिभुजः । शलाकां त्रिज्यागुणा यष्टिहृता । फलस्य धनुदृष्टिस्थानाद्गृह मूलाग्ररेखयोरन्तरगः कोणो गृहान्तरांशाभिधस्त्रिकोणमित्या वास्तव एव सिध्यति । गृहाग्ररूपग्रह