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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/३६४

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१४५३ अब भुज और कोटि के साधन को कहते हैं । हि- भा.-अग्रा और शङ्कृतल की भिन्न दिशा रहने से दोनों का अन्तर भुज होता है । तथा दोनों की दिशा एक रहने से योग करने से भुज होता है । दृग्ज्यारूप कर्णे वर्गों में भुज वर्ग को घटाकर मूल लेने से पूर्वापरानुकार कोटिसंज्ञक होता है । इति ।।२८॥ । उपपत्ति । यष्टयन से अबलम्ब सूत्र शङ्कु है । शङ्कुसूल से पूर्वापर सूत्र के ऊपर लम्ब भुज संज्ञक है स्वोदयास्त सूत्र और पूर्वापर सूत्र का अन्तर अग्रा है । शङ्कुसूल से स्वोदयास्त सूत्र के ऊपर लम्ब शकुतल है । इन भुज, अग्रा शङ्कृतल का स्वरूप देखने से स्पष्ट है कि भिन्न दिशा का शंकुतल और अग्रा का अन्तरभुज होता है, तथा एक दिशा का शंकुतल और अग्रा योग करने से भुज होता हैं । याङ, कुमूलं से वृतकेन्द्रपर्यन्त दृग्ज्याकर्ण, भुजसंज्ञक का भुज, भुजाग्र से वृत्त केन्द्रपर्यन्त कोटि, इन कर्णभुज और कोटि से उत्पन्न जात्यत्रिभुज में Vदृग्ज्या' -भुज' = कोटि । इससे आचायक्त उपपन्न हुआ इति ॥२८॥ इदानीं यष्टियन्त्रेण पलभाज्ञानमाह। उदयास्तसूत्रशङ, क्वन्तरं हुतं शङ्कुनाऽर्कसङ्गशुणितम् । विषुवच्छायैवं वा विनोदयास्तमयसूत्रेण ॥।२॥ सु. भा.-उदयास्तसूत्रशंक्वन्तरं शंकुतलं तदर्कसंगुणितं शंकुना हृतं फलं विषुवच्छाया पलभ भवति । उदयास्तसूत्रेण विनाऽपि वा पल भाज्ञानमेवं वक्ष्यमाणेन विधिना भवतीत्यस्याग्र सम्बन्धः। अत्रोपपत्तिः । अक्षक्षेत्रानुपातेन स्फुटा ॥२९॥ वि. भा–उदयास्तसूत्रशंक्वन्तरं (शंकुतल ) तद्वादशभिर्गुणितं शंकुना भक्त लब्धं बिषुवच्छाया (पलभा) भवति उदयास्तसूत्रेण विनाऽपि वा पलभाज्ञान मेवमग्रिमश्लोकेन भवतीति । अत्रोपपत्तिः । पूर्वं समभुवि लिखितं वृत्तं क्षितिजवृत्तम् । त्रिज्याङ्ग ला यष्टिः स्वत एव त्रिज्यारूपा। सा नष्टद्युतिर्यथा भवति तथा धार्या, येन यष्टयम् वधितं सद्रविबिम्ब केन्द्र गच्छेत् । यष्टधग्रादधो यावान् तस्मिन् काले शंकुः । अथ लम्बस्तावान् त्रिज्यारूपाया यष्टेः शङ,रूपलम्बस्य वर्गान्तरमूलं नतांशज्या (दृग्ज्या) शंकृमूल वृत्तकेन्द्रयोरन्तररूपेति । शंकमूलपूर्वापररेखयोरन्तरं भुजः। पूर्वापरदिग्गतयोर्