यन्त्राध्यायः १४३७ मध्यस्थ लम्बमुक्ताः कोटेरारभ्य नाडिका थुगताः । उदितारच दिनकरांशादारभ्य भवन्ति गृहभागाः ॥ “ इति श्रीपतिना छन्दोऽन्तरेणोक्तमिति स्फुटमेव गणकानाम् । भास्कराचा येणापि “‘चक्र चक्रांशाङ्क परिघौ श्लथभृङखलादिकाधारम् । धात्रीत्रिभ आधारात् कल्प्या भाधऽत्र खाधं च । तन्मध्ये सूक्ष्माकं क्षिप्ताऽकभिमुखनेमिकं धार्यम् । भूमेरुन्नतभागास्तत्राक्षच्छायया भुक्ताः । तत्सार्धान्तश्च नता उन्नतलवसंगुणीकृतं युदलम् । द्यदलोन्नतांशभक्त नाडयः स्थलाः परैः प्रोक्ताः । “ इत्युत्तया चक्रयन्त्र तथैव कथितं सिद्धान्तशिरोमणेर्वासनाभाष्यान्मिताः क्षराच्ीपतेराशयोऽपि विविच्य विज्ञनिरूपणीय इति ।१८। अब चक्र यन्त्र को कहते हैं । हि. भा–चक्रयन्त्र परिधि में भगणांश को अङ्कित करना चाहिये, और द्वादश राशि (बारहों राशि) को भी अङ्कित करना चहिये । इस चक्रयन्त्र परिचि में कल्पित आधार मध्य से लम्व करना चाहिये । इस चक्रयन्त्र से ग्रहादियों को वेध कर फल धनुर्न्त्र के बराबर होता है । सिद्धान्तशेखर में “कृत्वा सुवृत्तं फलकं हि पङ्घा चांशकैश्चाङ्कित मत्र मध्ये’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों के अनुसार कहा है, श्लोकों का अर्थ यह है--सरल सार वाली लकड़ी के वर्तुलाकार यन्त्र बनाकर उस यन्त्र में घटी ज्ञान के लिये साठ विभाग और अ श ज्ञान के लिये तीन सौ साठ विभाग करना चाहिये। इस यन्त्र के केन्द्रबिन्दु में अवलम्ब यष्टि देनी चाहिये जैसे अवलम्बयष्टिमूलगत यन्त्रछिद्र से सूर्य बिम्ब के तेज यन्त्र केन्द्र में पतित हो इस तरह से यन्त्र को स्थापन करना चाहिये। अवलम्ब यष्टि से व्यक्त जो भाग वे सूर्याधिष्ठित अंश (जिस अंश में सूर्य है) से उदित भाग होते हैं । और घटी व्यतीत (गत) घटी होती है । इस चक्रयन्त्र का आधा चाप संज्ञक यन्त्र होता है । चक्रयन्त्ररूप वृत्त को आधा करने वाली व्यास रेखा के मध्य में रन्ध्र (छिद्र) करना और उसमें लम्ब देना। उपपत्ति । वृत्ताकार काष्ठ के यन्त्र में साठ घटी को और तीन सौ साठ अंश को अङ्कित मच्य में छोटा छिद्र कर तद् गत अवलम्बयष्टि को सूर्याभिमुख इस तरह रखना चाहिये जिससे यन्त्र को बढ़ाने से सूर्यबिम्ब के केन्द्र में चला जाय । इखलिये वह डमण्डलाकार
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