सूर्य सिद्धान्त में अधो लिखित यन्त्र विवरण है मानाध्याय ( २१ ) तुङ्गबीजसमायुक्तं गोलयन्त्रं प्रसाधयेत् । गोप्यमेतत्प्रकाशोक्तं सर्वगम्यं भवेदिह ।। कालसंसाधनार्थाय तथा यन्त्राणि साधयत् । एकाकी योजयेद्बीजं यन्त्रे विस्मय कारिणि । शङ कुयष्टि धनुश्चकैश्छायायन्त्रैरनेकधा । गुरुपदेशाद्विज्ञेयं कालज्ञानमतन्द्रितै तोययन्त्रकपालाचैर्मयूरनरवानरै ससूत्ररेणुगभैश्च सम्यक्कालं प्रसाधयेत् ।। परदाराम्बुसूत्राणि शुल्वतैलजलानि च । बीजानि पांसवस्तेषु प्रयोगास्तेऽपि दुर्लभाः ।। ताम्रपात्रमधाश्छद्र ' न्यस्त कुण्डऽमलाम्भास । षष्टिर्मज्जत्यहोरात्रे स्फुटं यन्त्र' कपालकम् ।। नरयन्त्र' तथा साधु दिवा च विमले रवौ । छाया ससाधनः प्रोक्तं कालसाधनमुत्तमम् । मानानि सौरचान्द्राक्षसावनानि ग्रहानयनमेभिः । मानैः पृथक् चतुर्भिः संव्यवहारोऽत्र लोकस्य । इससे सौरमान, चान्द्रमान, नाक्षत्रमान और सावनमान, ये चार प्रकार के मान कहे गये हैं। इन्हीं चारों मानों से लोगों के सब व्यवहार होते हैं। किस किस मान से कौन कौन पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं यह सब प्रति पादित है। ब्राह्म, दिव्य, पित्र्य, श्राजापत्य बार्हस्पत्य, सौर, सावन, चान्द्र, नाक्षत्र ये नौ मान हैं। इन मानों में से मनुष्यलोक में केवल सौर, चान्द्र, सावन और नाक्षत्र इन चार मानों की ही प्रधानता है । क्योंकि इन्हीं मानों से मनुष्यों के सब व्यवहार सम्पन्न होते हैं। सूर्यसिद्धान्त, सिद्धान्तशेखर, सिद्धान्त शिरोमणि आदि सब ग्रन्थों में मानों के विषय में समान रूप से कहा गया है। ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के इस अध्याय में भूभादैध्र्य के भी साधन है । संज्ञाध्याय में संज्ञा कहने के कारण दशयेि हैं । सिद्धान्त इसका एक ही है । किस अंश में सूर्यसिद्धान्तादि भिन्न हैं। इसका प्रतिपादन कर आचार्य ने अपने सिद्धान्त के उत्तरार्ध में अनुक्रमणिका कही है । सूर्यसिद्धान्त, सिद्धान्तशेखर आदि संज्ञाध्याय अन्य सिद्धान्तग्रन्थों में संज्ञाध्याय नहीं हैं वस्तुतः इसकी आवश्यकता भी नहीं है । अध्याय के उपसंहार से पूर्व एक विशेष प्रश्न
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