१३७२ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते अब विशेष कहते हैं । हिभाऊंग्रहगति ज्ञान के लिये उच्च की कल्पना की गई है तथा पात की कल्पना की गयी है। अर्थात्र क्रान्ति वृत्तीय गति के लिये उच्च कल्पित है, और विमण्डलीय गति के लिये पात कल्पित है । कर्ण की न्यूनाधिकतावश से ग्रहगति और बिम्बमान में न्यूनाधिकता होती है, इस तरह की स्थिति मन्दस्पष्ट ग्रह में होती है । कुजादिग्रहों के शीघ्रकर्णवश से विम्बमान में न्यूनाधिकता होती है । लेकिन स्पष्टगति में कर्णवश से न्यूनाधिकता नहीं होती है । कर्णवश से बिम्बमान में न्यूनाधिकत्व क्यों होता है, नीचे लिखी हुई युक्ति से स्पष्ट है । संस्कृत भाष्य में लिखित (१) क्षेत्र को देखिये । दृ=दृष्टिस्थान स्वरूपान्तर से भूकेन्द्र । के=बिम्बकेन्द्र । दृके=ग्रहकर्ण केस्प=विम्ब व्यासाधु । दृकेस्प त्रिभुज में अनु पात करते हैं । यदि ग्रहकर्ण में त्रिज्या पाते हैं तो बिम्ब व्यासार्ध में क्या इस अनुपात से श्रि. विव्या ३ बिम्वर्ध कलाज्या आती है । इसका स्वरूप = २३ = ज्या ३ वक। उच्च- ग्रह कर्णं स्थानीय ग्रहकर्ण > अन्यस्थानीयग्रहकणं, इसलिये उच्चस्थान में हर की अधिकता से बिम्बमान अन्य स्थानीय बिम्बमान से अल्प होता है । तथा नीचस्थानीय कर्ण > अन्यस्थानीय कर्ण, अतः नीचस्थान में हर की अल्पता से बिम्बमान अन्यस्थानीय बिम्ब मान से अधिक होता है इति ॥ ३० ॥ इदानीं स्फुटयोजनात्मककर्णानयनमाह । कक्षा व्यासार्धगुणा मण्डललिप्ता विभाजिता कर्णः। स्वकलाकर्णेन गुणः कणैस्त्रिज्याहृतः स्पष्टः ॥३१॥ सु. भा–प्रहकक्षा व्यासार्धेन त्रिज्यया गुणा मण्डललिप्ताभिश्चक्रकलाभि विभाजिता फलं मध्यमयोजनकर्णः स्यात् । स कर्णाः स्वकलाकर्णेन स्फुटशीघ्र- कर्णेन गुणस्त्रिज्याहृतः स्पष्टो योजनकर्णः स्यात्। पूवीर्यस्य परिधितो व्यासार्घनयनेन स्फुटया । त्रिज्यातुल्येन कलाकर्णेन मध्यो योजनकरांस्तदा स्वेष्टकलाकर्णेन किमित्यनुपातेन स्फुटो योञ्जनकंण भवति । तिघ्नस्त्रिगुणेन भक्त:’-इत्यादि भास्करोक्तमेतदनुरूप- मेव ॥३१ । * वि. भा-ग्रहकक्षा त्रिज्यया गुणा मण्डलकलाभिः (चक्रकलाभिः) भक्ता तदा मध्यमयोजनकणं भवेत् स कर्णः स्फुटशीघ्रकणनगुणःत्रिज्या भक्तस्तदा स्फुटो योजनकर्णः स्यादिति ।
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