पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/२६४

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

प्रकरणम् १३५५ प्रथम मूल उस चापाखं की ज्या होती है, और द्वितीय मूल चोवीस में से उसको घटाने से उस अर्धचाप की कोटिज्या होती है। इस तरह ज्योत्पत्ति में पुनः पुनः समज्याधं अष्टम से और बारहम से कम करने से ४ । २ । १ । १० । ११ । ५। ७ । ६।३18 आदि अर्धाङ्गज्या होते हैं। जैसे अष्टमज्या की अञ्चशज्या और उसकी कोटिज्या से ४। २०, २ । २२, १ । । ३, १० १ १४, ५ ।e, ७ । १७, ११ । १३ बारह वीज्या से ६ । १८, ३ । २१, ६ १५ बाहवीं सोलहवीं चौबीसवीं (त्रिज्या) ये तीनों ज्या विदित ही हैं इन से इष्ट व्यासार्ध में उनके अर्धज्यानयन से चौबीस ज्याए सिद्ध होती हैं इति । उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये । के=वृतकेन्द्र । रय= इष्ट चाप, यन=चापज्या । रन=चाप की उत्क्रमज्या । यर=चापपूर्णज्या। तव यन'+रन यन' +ल =यर'=चापपूर्णज्या, दोनों पक्षों को चार से भाग देने से चाषज्या' +चापोत्क्रमज्या' चापपूर्णज्या' =चापधज्य =अनष्ट, त्रि. चापपूज्या_=चापार्धकोटिज्या, दोनों का मूल लेने से A/ चापज्याचापोत्क्रमज्या' ' + = चापर्धज्या तथा , A/त्रि - चाऽया' = चापाषं कोटिज्या । इससे आचार्योक्त सूत्र उपपन्न हुआ। सिद्धान्तशेखर में ‘उत्क्रमक्रमसंमानसमज्याखण्डवर्गयुतिवेदविभागम्' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्रीपयुक्त श्लोकों का आदर्श आचार्योंक्त ही है, भास्कराचार्य ने भी “इष्टा त्रिज्या सा श्रुतिट्टभुजज्या" इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोकों से आचार्योक्त बात को ही स्पष्टतया कहा है इति ।।२०-२१॥ इदानीं विशेषमाह । एवं जीवाखण्डाल्पानि बहूनि वाऽऽद्यखण्डानि । ज्यार्धानि वृत्तपरिधेः षष्ठचतुर्थभागानाम् ।२२। सु- भा.-एवं तदर्धज्यानयनेन गणकेनाल्पानि वा बहूनि यथेप्सितानि जीवाखण्डानि साध्यानि । आचार्येण च स्वग्रन्थे चतुर्विंशतिज्र्यार्धानि साधितानि यदीप्सितानि ९६ ज्यार्धानि स्युस्तदा पुनस्तदर्धभागज्याविधिः कार्यः। अर्धभाग ज्याविधौ सर्वत्र त्रिज्याधं त्रिज्यावर्गार्धपदं त्रिगुणत्रिज्यावर्गाचतुर्थांशपदं क्रमेण वृत्तपरिधेः षष्ठचतुर्थेत्रिभागानां ज्यार्धानि चाद्यखण्डानि व्यक्तानि । परिधिषष्ठ भागस्य षष्टिभागानां या ज्या पूर्णज्या तस्या अर्ध त्रिज्यार्धसु चतुर्थभागस्य नवते