आर्यभट के मत का खण्डन : आर्यभट के सिद्धान्त सर्वथा दोषपूर्ण हैं, यह कहते हुए आचार्य ने उनकी उक्तियों का नाना प्रकार से खण्डन करने के लिए इस ग्रन्थ की रचना की। आचार्य भूभ्रमणखण्डन में कहते हैं
- यः प्राणेनैति कलां भूर्यदि तर्हि कुतो ब्रजेत् कमध्वानम् ।
- आवर्तनमुर्व्याश्चेन्न पतन्ति समुच्छ्रयाः कस्मात् ॥
आर्यभट तो पृथिवी के चलत्व और भगणों के स्थिरत्व को स्वीकार कर अहोरात्रासु में पृथिवी के भ्रमण को अपने अक्ष के ऊपर मानते हैं, परन्तु ब्रह्मगुप्त ने आवर्त्तनमुर्व्याश्चेदित्यादि उक्ति के द्वारा, तथा अन्यत्र अनेक अत्युक्तियों द्वारा भूभ्रमण का जो खंडन किया है वह दुराग्रहपूर्ण और केवल वाग्बल है।
- स्वयमेव नाम यत्कृतमार्यभटेन स्फुटं स्वगणितस्य ।
- सिद्धं तदस्फुटत्वं ग्रहणादीनां विसंवादात् ॥
- जानात्येकमपि यतो नार्यभटो गणितकाल गोलानाम् ।
- न मया प्रोक्तानि ततः पृथक् पृथक् दूषणान्येषाम् ।।
- आर्यभटदूषणानां संख्या वक्तु न शक्यते यस्मात् ।
- तस्मादयमुद्देशो बृद्धिमताऽन्यानि योज्यानि ॥
जिस रीति से, जिन शब्दों द्वारा ब्रह्मगुप्त ने आर्यभट के मत का खण्डन किया है, उसी रीति से उन्हीं शब्दों में वटेश्वराचार्य ने वटेश्वर सिद्धान्त में ब्रह्मगुप्त के मत का खण्डन किया है। इसके विस्तृत विवरण के लिए वटेश्वर सिद्धान्त का अवलोकन अपेक्षित है।
ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त : ग्रहग्रहणादि के वेधकर्ता ब्रह्मगुप्त स्वयं तो प्राचीनाचार्यो की अपेक्षा अनेक विशिष्ट ग्रहादिसाधन विधियों का, तथा गणित के सत्य और असत्य की परीक्षा के लिए वेध विधियों का अपने ग्रन्थ में प्रौढोक्ति के साथ प्रतिपादन करते हैं।
- ज्ञातं कृत्वा मध्यं भूयोऽन्यदिने तदन्तरं भुक्तिः ।
- त्रैराशिकेन भुक्त्या कल्पग्रहमण्डलानयनम् ॥
- यदि भिन्नाः सिद्धान्ता भास्करसंक्रान्तयोऽपि भेदसमाः ।
- स स्पष्टः पूर्वस्यां विषुवत्यर्कोदयो यस्य ॥
इत्यादि वास्तव विचारों में प्रवृत्त विशिष्ट विवेचनायुक्त सिद्धान्त ग्रन्थ की रचना सबसे पहले ब्रह्मगुप्त ही ने की। यह बात इस समय उपलब्ध ज्यौतिष सिद्धान्तों के ग्रन्थों से विदित होती है।