पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/५३७

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५२४ जैह्मस्फुटसिद्धान्ते अब ग्रह विश्वका के स्फुटीज़रल को कहते हैं । हभा.-त्रिज्या में त्रिगुणित अन्यफलज्या को जोड़कर अन्त्यकथं (स्थिरीभूत शीव्रकर्णी) को घटा देना फिर सलाउस से गुणा कर अपने कालांश से गुणित अन्य फलज्या से भाग देने से कुज, बुध, गुरु, शुक्र और शनैश्वर की स्फुट मानकला होती है, रवि से अघः (नीचा) स्थित बुध और शुक्र के रवि के निकट (समीप) में रहने के कारण चन्द्र की तरह अस्ति (कृष्ण) नहीं होता है इति ॥३-४॥ उपपत्ति उच्च स्थान में ग्रह बिस्व के रहने से मध्यम बिम्बमान के तृतीयांश तुल्य अपचय होता है, तथा नीच स्थान में ग्रह बिम्ब के रहने से मध्यम बिम्बमान के तृतीयांश तुल्य उप चय होता है, इसलिए इन दोनों (उच्च पर नीच) के अन्तर में अनुपात करते हैं । यदि अन्त्य फलज्या तुल्य त्रिज्या और शीघ्र कर्ण के अन्तर में बिम्बमान के तृतीयांशतुल्य उपचय और अपचय पाते हैं तो त्रिज्या और इष्ट श ष कर्ण के अन्तर में क्या इससे जो फल आता है उसको त्रिज्या से अधिक शीघ्र कर्ण रहने में मध्यम बिम्ब में से घटा देना, त्रिज्या से अल्प शीघ्र कथं रहने से मध्यम विम्ब में जोड़ देन तब स्फुट मानकला होती हैं । जैसे व (शीक-त्रि) _ --" = स्फुटमानकला= (३ अंफया+त्रि–पी) ३ ऑफज्य ३ ऑफज्य =अ माँवं + मद्(त्रि-शक) = मदिं =(३ अंफज्या+त्रि_क) ३ अफज्या ३ ऑफज्य अध्यम बिम्बकलाः ८१-, इससे उस्थापन देने से स्फुट बिम्बकला _२७ (३ ऑफज्या+त्रि-शीक) अफज्या-कालांश इससे आवायोंक्त उपपत हुप्रा । इसी से भास्कराचायत स्फुटबिम्यमान कुल नयन भी उपपन्न होता हैसिद्धान्त शेखर में श्रीपति "त्रिगुणयाऽन्त्यफलोदूव जीवया इत्यादि सं- उपपति में लिखित इलोकों से आचयक्त के अनुरूप ही कहा है। लेकिन यहूनयन ठीक नहीं है, क्योंकि उच्चस्थानीय और मध्यस्थानीय बिम्बकलाज्य के अन्तर के तुल्य ही नीच स्थानीय और मध्य स्थानीय विम्ब कलाज्य के अन्तर आचार्यों ने स्वीकार किये हैं जो ठीक नहीं है, जैसे आचार्य संभत उच्च स्थानीयबिम्ब कलाज्या= त्रि विव्या त्रि विव्य त्रि+अफज्या =उकर्णी' अभ्यस्थानीय बिम्बकलाज्या=विया, तथा नीचस्थानीय बिम्ब कलाया=त्रिविष्य