पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/५३८

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५२१ त्रि विद्या fत्र –ऑफज्या तब आचार्यं स्वीकृति से मध्यस्थानीय विकज्या--उल्चस्याचिकज्या=नीविकज्या त्रि विद्या त्रि विद्या मध्यस्यावकज्य = विंब्या - विव्या त्रि +अफज्या त्रि अफज्या त्रि• विव्या+विघ्या अंफण्या-त्रि विद्या त्रि+ अंफज्या त्रि- विव्या–त्रि विव्या+विव्याउज्या त्रि--अफज्या =विव्या- अंफज्या = वूिल्या. अफज्या प्रपवर्तन देने से १ त्रि+अंफज्या त्रि-अफघ्या 'त्रि+अंफज्या त्रि--ऑफ्ष्या . त्रि-अंफज्या=त्रि+अंफज्या, तुल्य जोड़ने से त्रि+अ फ़ज्या+अ फ्याँ =त्रि+२अंफज्या=त्रि ३. २ऑफ़ज्या=त्रि-त्रि =० दो से भाग देने से इंफज्या=०, पूर्वोक्त आचार्यस्वकृतिं से अस्यफलज्या का मान शून्य आया यह प्रयुक्त आया इसलिये आचार्योक्त फुट बिम्ब कला नयन ठीक नहीं है यह सिद्ध हुआ । बुध और शुक्र के भी चन्द्र हो की तरह शृङ्गोन्नति दर्शन और सित के उपचयत्व और अपचयत्व आधुनिक सूक्ष्म दूरदब्रुक यन्त्रवल से उपलब्ध होता है दृष्टि से उसको आचार्यों ने उपलब्ध नहीं किया क्योंकि उस समय(आचर्य के समय)में उस तरह के यन्त्र का अभाव था इसलिए अनुमान से ‘आसन्नत्वाद्रवेः यह कल्पना की गयी जो युक्तियुक्त नहीं है इति ॥३-४॥ अथ युति काल ज्ञानार्षे चालन फल ज्ञानार्थं चाह । भुक्तवन्तरेण भक्त प्रहरुतरं फलवनैरधिकमुक्ते । प्रागूनगतौ पश्चाद्युतिर्धके वकिरणोर्यस्तम् । एको वक्रो भुक्त्योयुत्योनः प्रागथाबिकः पश्चात् । ग्रहयोरन्तरलिप्तास्तथैव भक्ताः स्वभुक्तिगुणः ॥६॥ सुभाअहान्तरं मार्गयोर्हयोभुत्यन्तरेण हृतं फलं दिनानि भवन्ति । प्रघिकभुक्तौ प्रहेऽल्पभुक्त रचिके युतिः प्राग्गता वाच्या । ऊनगतो आहेऽचिकभुक्तर- घिके पश्चादेष्या युतिर्वाच्या । द्वयोगं हयोर्वक्रिणोठ्यंस्ता युतिरयतु पूर्वविधिना गतलक्षणे एष्या । एष्यलक्षणे च गता वाच्या । यव को ग्रहो वती तदा प्रहान्तरं