चन्द्रष्टङ्गोप्तत्यधिकारः ४८५ अब चन्द्र की स्पष्ट क़ान्तिज्या का साघन करते हैं हि- भा.-एक दिशा की चन्द्रशान्ति और चन्द्रशर का योग करने से तथा भिक्षा दिशा की चन्द्रान्ति और चन्द्रशर का अन्तर करने से जो होता है उस की | ज्या चन्द्र की स्पष्टान्तिज्या रवि की तरह बिम्बीयाहोरात्रवृत्त से होती है इति ।।५। उपपत्ति चन्द्रबिम्बकेन्द्रोपरिगत कदम्बप्रोतवृत्त क्रान्तिवृत्त में जहाँ लगता है वह चन्द्रस्थान है, स्थान से चन्द्रबिम्बकेन्द्रपर्यन्त चन्द्र का मध्यम शर है, चन्द्रस्थानपरिगत ध्रुवप्रोतवृत्त नाडीवृत्त में जहां लगता है वहां से चन्द्रस्थानपर्यन्त चन्द्र की मध्यम क्रान्ति है, चन्द्रबिम्ब के ऊपर अहोरात्र वृत्त करते से वह चन्द्र का बिम्बीयाहोरात्रवृत्त होता है, तथा चन्द्रस्यान गत अहोरात्रवृत्त करने से चन्द्र का स्थानीय अहोरात्रवृत होता है, चन्द्रबिम्बकेन्द्रोपरिंगत ध्रुवप्रोतवृत स्थानीय अहोरात्रवृत्त में जहां लगता है वहां से चन्द्रबिम्बकेन्द्रपर्यन्त अथवा चन्द्रस्थानोपरिंगत ध्रुवश्चतवृत्त बिम्बीयाहोरात्रवृत्त में जहां लगता है वहां से चन्द्रस्थान पर्यन्त चन्द्र का स्पष्ट शर है, यहां एकदिशा के चन्द्र स्पष्टशर और चन्द्रमध्यम न्ति का योग करने से तथा भिन्न दिशा के उन दोनों का अन्तर करने से स्थानगत ध्रुवम्रोतवृत्त और नाडीवृत्त के सम्पात से स्थानगत ध्रुवश्रोतवृत्त और बिम्बीयाहोरात्रवृत्त के सम्पात पयन्त चन्द्र की स्पष्टा क्रान्ति होती है, लेकिन यहां आचार्य चन्द्र के स्पष्ट शर और मध्यमशर में अभेदत्व स्वीकार कर चन्द्र की स्पष्टा क्रान्ति साये हैं इसलिये यह ठीक नहीं है, इसी कारण से भास्कराचार्य ने "ब्रह्मगुप्तादिभिः स्वमान्तरत्वान्न कृतः स्फुटः" इस पद्य से ब्रह्मणु- तादि मत का खण्डन किया है । सिद्धान्तशेखर में “शीतांश्वपक्रमधनुःशरयोः समासस्तुल्या शयो’ इत्यादि से श्रीपति ने आचार्योंक्त के अनुरूप हो कहा है, सूर्यसिद्धान्त में भी "विक्षेपा पद्मैकत्वे कान्तिविक्षपसंयुता’ इत्यादि से भगवान् सूर्यो ने ब्रह्मगुप्तादि कथित प्रकार के समान ही कहा है, भास्कराचार्य ने सिद्धान्तशिरोमणि में "त्रिज्यावर्गादयनवलनज्याकृतिं प्रोह्य मूलं इत्यादि से स्पष्टशर का आनयन कर के "स्पष्टा क्रान्तिः स्फुटशरयुतः" इत्यादि से चन्द्र स्पष्टशर और चन्द्रमध्यम यान्ति के संस्कार से चन्द्र की स्पष्ट झान्ति का साघन क्रिया है जो बिलकुल ठीक हैं इसको विज्ञ लोग विचार कर सम” इति ॥५॥ इदानीं रविचन्द्रयोभुजसाधनमाह स्वक्रान्तिक्ये त्रिज्यागुये हृते लम्बकेन रविशशिनोः अप्रै पृथक् स्वशङ्कृतलतुल्ययुतिरन्यदिग्वियुतिः ॥६॥ सुः भा.-लम्बकेन लम्बज्यया हृते तदा रविशशिनोरग्रे भवतः । अग्रा पृथक् स्वश, तलतुल्ययुतिरन्यदिग्वियुतिः कार्या । एवं रविचन्द्रयोर्मु जे भवतः ।
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