पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/४८५

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४६८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते कालांशाः=चन्द्रस्य=१२, कुजस्य= १७, बुधस्य==१४, गुरोः=११, शुक्रस्य=१०, शनेः=१५, तथाऽऽचार्योक्ताः चन्द्रस्य= १२, कुजस्य= १७, बुधस्य=१३, गुरोः= ११, शुक्रस्य=९, शनेः=१५ एतयोर्मतयोधंधशुक्रकालांशयोरेकं कमन्तरमस्ति । सिद्धांतशेखरे श्रीपतिना “शुक्रर्यज्ञद्युमणिजकुजा द्युतरैः कालभागैगभिश्चन्द्रो रविभिरिनतो जायतेऽदृश्यदृश्यः । गभ्यो न्यूनादसुचय इतश्चाधिदन्तरस्यंयुक्तः प्राणैः स खरसहृतः कालभागा भवन्ति” ऽनेनाऽऽचार्योक्तानुरूपा कालांशा एव उक्ता इति ।। ६ ।। अब ग्रहों के कालांशों को कहते है। हि- भा.--चन्द्रमा रवि से बारह अंश (कालांश) पर दृश्य और अदृश्य होते हैं, शुक्र, गुरु, बुध, शनि, और मङ्गल, ये ग्रह नौ ही में दो दो की वृद्धि से अर्थाब शुक्र , गुरु e+२=११, चुघ ११+२=१३, शनि १३+२=१५, मङ्गल १५+२=१७ इतने कालांश में दृश्य और अदृश्य होते हैं। इति ।। ६ ।। उपपत्ति । रवि से जितने अन्तर में ग्रहों का उदय अस्त होता है वह अन्तर कालांश कहलाता है, प्राचीनाचार्यों ने बार बार वेघद्वारा कालांश को समझकर पठित किया है, लेकिन यथार्थतः रवि और प्रह के अन्तर सूत्र (विम्बान्तर सूत्र) की विलक्षणता के कारण वेध से भी कालांश स्थिर नहीं हो सकता है इस विषय में सिद्धान्ततत्त्वविवेक में कमलाकर ने युक्ति युक्त बातें कही है, “दन्नन्दवः शैलभुवश्चशक्र इत्यादि भास्कर विधि से चन्द्रादि ग्रहों के कालांश ये हैं चन्द्र के=१२, मङ्गल के=१७, बुध के=१४, वृहस्पति के=११, शुक्र के=१०, शनि के= १५, तथा आचायं कथित विवि से चन्द्र के=१२, मङ्गल के=१७, बुध के=१३, बृह स्पति के=११, शुक्र के=&, शनि के=१५ । दोनों मतों से बुध और शुक्र के कालांशों में एक एक का अन्तर हैसिद्धान्त शेखर में श्रपति ने "शुक्रायंज्ञद्युमणिज कुजा’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित इलोक से आचार्योंक्त के अनुरूप ही कालांश कहा है इति ॥ ६ ॥ इदानीमुदयास्तयोर्गतैष्यदिनानयनमाह । दृश्यादृश्यैर्येतिवद्ग्रहार्कभुक्तधन्तरैक्य-लब्ध-दनैः । ऊनाधिक लिप्तास्यां प्राग्वत् तात्कालिकंरसकृत् ॥ ७ ॥ सु० भा०-पूर्वसाधितैरिष्टकालांशंदृश्यादृश्यैः पठितकालांशैश्च ऊनाधिक- लिप्ताभ्यां ग्रह्याक भुक्त्यन्तरैक्यलब्धदिनैस्तात्कालिककरिष्टकालांशैः प्राग्वदसकृद्वि घिना युतिवद्ग्रहयुतिवदुदयास्तयोरैतैष्यदिनसाधनं कार्यमित्यर्थः। अत्रैतदुक्तं भवति