पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/४८२

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उदयास्ताधिकारः ४६५ जब ग्रहस्थान क्षितिज में रहता है तब ग्रहविम्ब केन्द्र क्षितिज से नीचा या ऊपर रहता है, स्थानोपरिगतध्रुवश्रोतवृत्त तथा बिम्बकेन्द्रोपरिगतध्रुवप्रोतवृत्त करने से दोनों के अन्तर्गत बिम्बीयाहोरात्र वृत्तीय चाप अक्षदृक्कर्म संज्ञक है। स्थान से बिम्बीयाहोरात्र- वृत्तपर्यन्त स्थानगत ध्रुवश्रोतवृत्त में स्पष्टशर एक भुज, बिम्बीयाहोरात्रवृत्त और क्षितिज वृत के सम्पात से स्थान पर्यन्त क्षितिज वृत्त में द्वितीय भुज । बिम्बीयाहोरात्रवृत्त और क्षितिज वृत्त के सम्पात से स्थानगत ध्रुवश्रोतवृत्त के ऊपर लम्बवृत्त में तृतीय भुज, इस त्रिभुज को आचार्यों ने सरल जात्य मान लिया है, उक्त त्रिभुज में स्थान लग्न कोण अक्षांश या तत्तुल्य आक्षवलन है, 'क्षितिजेऽक्षज्यया तुल्यनक्षजं वलनं इस उक्ति से एक कोण समकोण है अतः अवशिष्ट तृतीय कोण लम्वांश के बराबर हुआ । अब अनुपात करते हैं यदि लम्बज्या में स्पष्ट शरज्या पाते हैं तो अक्षज्या में क्या इससे लम्बवृत्तीय चापज्या वा बिम्बीयाहोरात्र वृत्तीय चापज्या आती है पशज्या. अक्षज्या (फ) परन्तु अज्यापभा =अतः स्पशज्या. पभा लज्या २२

सदृशपण्या=बिम्बीयाहोरात्रवृचापज्या, यह वपान्तर से सशरस्या= सार

मशर तथा पूर्वागत फल के चाप करने से शुरु प्रभा बिम्बीयाहोरात्र वृचा, लेकिन यह आक्ष- १२ दृक्कर्म के बराबर नहीं है। इसलिए आचार्योंक्त यह आनयन अत्यन्त स्थूल है। (क) इस स्वरूप में क्षितिज में प्रहस्थान स्थित रहने से अक्षज्या=आक्षवलनज्या= आक्षवलन स्वल्पा पौ = आक्षदृक्कर्म, इससे ‘स्पष्टेषुरक्षवलनेन हतो स्पशर. आक्षवलन स्पशर. न्तर से १२ विभक्त:’ इत्यादि सिद्धांत शिरोमणिस्थ भास्करोक्त उपपन्न होता है । सिद्धांत शेखर में "क्षुण्णे क्षेपेऽक्षज्यया लम्बभक्त"’ इत्यादि से श्रीपति ने आचार्योक्तानुरूप ही कहा है। सूर्य सिद्धांत में भी “विषुवच्छाययाभ्यस्ताद्विक्षपाक्” इत्यादि से आक्ष दृक्कर्मानयन किया गया है लेकिन किसी का आनयन ठीक नहीं है यह उपपत्ति देखने से तथा अक्षज दृक्कर्म का प्रदेश देखने से स्फुट है, ‘अथ तैः शरे तु याम्योत्तरे क्रमविलोमविधानलग्नं' इत्यादि भास्करोक्ति से उत्तरशर में अयनदृक्कर्मसंस्कृत प्रह में अक्षज दृक्कर्म कला को घटाने से दक्षिण शर रहने से अक्षजहक्कर्म कला को आयन कर्म संस्कृत ग्रह में जोड़ने से उदयलग्न होता है, अस्तलम्न साधन में उत्तरशर रहने से छः राशि सहित आयन दृक्कर्म संस्कृत ग्रह में अक्षजदृक्कर्म कला को जोड़ने से तथा दक्षिणशर रहने से घटाने से पश्चिम क्षितिज में ग्रह के अस्तंगते रहने से पूर्वक्षितिज में जो लग्न होता हैं वह भास्कराचार्यं संमत अस्तलग्न होता है, यहां आचार्य ने उस में से छः राज्ञि को घटाकर पश्चिम क्षितिज में ग्रह के अस्तंगत रहने से जो अस्तलग्न होता है। उसी को ग्रहस्त लग्न स्वीकार किया है इति ।। ४ ।