पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/४७९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

४६२ ब्राह्मस्फुटसद्धान्ते है, स्यान से बिम्बफेद तक ग्रह का मध्यमशर है स्थानोपरिगत तथा बिम्बोपरिगत ध्रुव प्रोतवृत्त करना, स्थानीयाहोरात्रवृत और बिम्बीयाहोरात्रवृत्त कर देना, तब स्थानोपरिगत ध्रुवप्रो वृत पर स्यानपरिगत कदम्बश्रोतवृत्त के अन्तर्गत बिम्बीयहोरात्रवृत्तीय चाप मायन दृक्कर्मासु है अथवा स्थानपरिगत ध्रुवप्रोतवृत्त तथा बिम्बोपरिंगत ध्रुवम्रोतवृत्त के प्रन्तर्गत नाडीवृत्तीय चाप आयन हुबर्मामु है, स्थानगत कदम्बश्रोतवृत्त और ध्रुवप्रोतवृत्त से उरपन्न कोण स्थानीय आयनवलन है। युज्याग्रीय प्रायनवल सत्रिमग्रह की कान्ति के बराबर होगा है, तब ग्रह का मध्यमशर एकभुज, बिम्बकेन्द्र से स्थानगत ध्रुवम्रोतवृत्त के ऊपर लम्बवृत्तीय चाप द्वितीय मुज,स्थानगत ध्रुवम्रोतवृत्त में तृतीय भुज,इन तीनों भुजों से उत्पन्न चापीयजात्यत्रिभुज में कोणानुपात करते हैं यदि त्रिज्या में मध्यमशरज्या पाते हैं तो अयन वलनज्या में क्या इससे मशरज्य.आयनवज्या सम्मवृत्तीय चापज्या प्रती है, पर =चाप लंबूच।पज्या परन्तु लम्बवृत्तीय मशरज्य.आयनवज्या ज्या और बिम्बीयाहोरात्रवृत्तीयायनदृक्कर्मासुधा बराबर है इसलिये त्रि मशरज्या.सत्रिभग्नक्रज्या आयनदृक्कर्मासुज्य, = ज्या और चाप का अभेदस्व स्वीकार करने त्रि. से मशरसत्रिभग्नक्रान्ति आयनदृक्कर्मासु, यहां आचार्यों ने स्वल्पान्तर से त्रि=स्थानीय युज्या १८००४अयनदृक्कर्मासु स्वीकार किया है। इसके वश से आयन दृक्कमंकलानयन करते हैं ग्रहान्त राशि के निरक्षोदयासु =आयनदृक्कमॅकला बिम्बीय युज्या वश से आयन दृक्कर्मानयन समीचीन हो सकता है, लेकिन बिस्बोय युज्या विदित नहीं है, स्थानीय वृज्या वश ही से आचार्यों ने प्रनयन tकया है तथा शू ज्या को त्रिज्या के बराबर मान लिया है इसलिये यह अनयन ठीक नहीं है । सिद्धान्त शिरोमणि में “आयनं वलनमस्फुटेषुणा सङ्गुणै:’ इत्यादि संस्कृतोपपति में लिखित इलोक से अयन हूक्क्रमनयन किया है, लेकिन भास्कराचार्य ने भी त्रिज्या तुल्य ही द्यज्या स्वीकार की है, सिद्धान्तशेखर में 'fरक्षे सत्रिमखगोऊपज्ञऽमज्य’ इत्यदि संस्कृतोपपति में लिखित श्लोक से श्रीपति ने लल्लाचार्योक्त सत्रिभग्रह की उत्क्रमज्या से सचित फ्रान्तिज्या तुल्य आयनवलज्या से आयनहॐक्रमत्रयन किया है। श्रपति ने बहुत स्थानों में आचार्य (ब्रह्मगुप्त) मत का अनुसरण करते हुये भी किसीकिसी स्थल में आचार्यमत के विरुद्ध लल्लोक्त को भी स्वीकार किया है, सत्रिभग्रहे अन्तिज्या और चूज्याश्रयायनवलज्या बराबर होती हैं। सत्रिभग्रहोत्क्रमज्या साधित क्रान्तिज्य, अयनवलनया के तुल्म नहीं होती है, इसलिये लल्लाचायत और श्रीपयुक्त प्रयन हक्क्रमनयन ठीक नहीं है, सूर्यसिद्धान्त में ‘‘सत्रिभ अहजन्तिभागघ्ना क्षेपलिप्तिका" इत्यादि से प्रायन हक्कर्मानयन, सल्लाचार्य और श्रीपति वे खाचित आयन हुकमों से किञ्वित् सूक्ष्म है, लेकिन किसी भी आचार्य कर दृक्कर्मानयन भैक महीं है इति॥