पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/४७६

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उदयास्ताधिकारः ४५३ दिश्युदय। पश्चादस्तमयश्च भवेत् । तेन ऋजुबुधशुक्रो पश्चिमायामुद्गम्य तत्रैव वक्रगत्याऽस्तमयं यातः। रवेरग्रः पृष्ठतो वा मन्द फलशोषाफलयोगाधिकगमनाभ- वदुदयास्तमयसमययोरभ्यन्तरे वक्रगतिवाच्च रवितोऽल्पगतित्वं रवितोऽधिकगतित्वं चानयोर्भवतः । तेन पूर्वापरयोरुभयोरपि दिशोरुदयस्तौ भवेतामिति । सिद्धान्त शेखरे "ऊनो ह्यनगतिः सहस्रकिरणाद् दृश्यो भवेत् प्राग्ग्रहः पश्चादभ्यधिकस्तथा ऽधिकगतिः स्यात् प्रागदृश्यः पुनः । स्वल्पोऽनल्पगतिस्तथोनगतिकः पञ्चददृश्यो- ऽधिकः कालांशैरधिकोनकस्तु कथितेरिति” ऽनेन श्रीपतिना ऽचार्योक्तानुरूपमेवोक्तं सिद्धान्तशिरोमणौ रवेरूनभुक्तिनं हः प्रागुदेतीत्यादिना" भास्करेणाप्येवमेव कथ्यत इति ॥२॥ अब सूयंसान्निध्यवश से अहों के दृश्यव भोर अदृश्यस्व को कहते हैं हि- भा.-रवि से अल्प और अल्पगतिग्रह पूर्वदिश में दृश्य होते हैं । अन्यथा (वि से अधिक गतिग्रह् और न्यून ) पूर्वदिशा में अदृश्य होते हैं । एवं रवि से प्रघिक गतिग्रह और अधिक पश्चिम दिशा में दृश्य होते हैं । अल्पगतिग्रह और रवि से अधिक पश्चिम दिशा में प्रदृश्य होते हैं इति ॥२॥ उपपत्ति रवि से अल्पगतिकग्रह सूर्यसान्निध्य (समीपता) वश से जिनके बिम्ब मदृश्य हैं वे जब सूर्य के साथ तुल्यता को प्राप्त होते हैं तब परमास्तकाल होता है। उसके बाद रवि शीघ्रगति होने के कारण आगे जाते हुए पूर्वी क्षितिज में ग्रहोदय के बाद धीरेधीरे pाता है । इन प्रह्वों का प्रथमदर्शन रूप उदम रात्रिशेष में होता है अतः पूर्वदिशा में उदय होता है, बाद में अन्तर वृद्धि से इन ग्रहों के पश्च। भाग में रवि के आने से पश्चिम दिश में इन ग्रहों का दर्शन होता है, वह पर निश्चित कालांश तुल्य अन्तर में अदर्धेन (नहीं देखना) होता है, अत: पश्चिम दिशा में अस्तत्व होता है, रवि से अधिक गति ग्रहों के परमास्त समय से माने आने से सूर्यास्त के बाद दीन सम्भव से पश्चिम दिशा में उदय होता है, सौटकर रवि से पश्चाद् भाग में लाने पर उसके रात्रि शेष में दर्लन से बहीं पर आसन्न तुल्य अन्तर में प्रस्तसम्भावना से पूर्वदिशे में अस्तमामित्व होता है । वक्रगति बुध और शुक्र के रवि वे अल्पगतित्व के कारण पूर्वदिशा में उदय होता है, और पश्चिम दिशा में प्रस्त होता है, इसलिये ऋजु (मार्ग) बुध औौर झुक पश्चिम दिशा में उदित होकर वहीं वक्रगति से अस्तव प्राप्त होते हैं। रवि से आगे या पीछे मन्दक्षत और वीप्रफल ने योग से अधिक चलना नहीं हो सकता है इसलिये उदयकाल और अस्तकाल के अम्धन्तर में बता से इन दोनों (ष सौर सूक) या रवि से अल्पमतित्व और अधिक पठित्व होता है, इलिये पूर्व दिशा में और पश्चिमदिब्रा में (दोनों *) इन यनों का उदय और अस्ट होता है । सिदान्तश्रेवर में "न ,नगतिः वहृतिरलङ् दृश्यो भवेत् प्रम:’ इस्पादि