पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/४६८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

४५१ सूर्यग्रहणाधिकारः कल्पिताः । एवं तत्र दशज्याविधानेन रविग्रहणं यदुपनिबद्धे तादृशममान्ते भवति । ये च तत्र दोषशानाचार्य एव वक्ष्यति तन्त्रपरीक्षाध्याये वयमपि तत्रैव व्याख्या स्यामः ' तन्त्र परोक्षाध्याये च "पञ्चज्यया यतोऽर्कग्रहणं श्रोषेणविष्णुचन्द्रकृतम् । आर्यभटोक्तान्यनयोरकंग्रहछूषणानि ततः॥ एवं विचार्यमाणे पञ्चज्यालम्बन महास्थलम् । स्थूलाऽवनतिश्च तथा दशज्या लम्बनावनती । इत्यादिनोक्त विचायं ‘न स्फुटं भवति पञ्चजोवयेति' श्रीपतिनोक्तम् । सूर्य सिद्धान्ते, शिष्यधोवृद्धिदे लल्लाचार्येण च पूर्वोक्तपञ्चवयंव रविग्रहणानयन मुक्त तत् सदोषं ज्ञात्वा श्रोपतिनाऽऽवयं (ब्रह्मगुप्त) कथितमानं एवावलम्बित इति ॥२५॥ अत्र विशेष कहते हैं। हि. भा.- प्रन्य जो शेष (स्थित्यर्धादि साधन) हे गया है वह पूर्ववत् (चन्द्र प्रहीणोक्त साधन की तरह) होता है, बह्म (आचार्य) कचित स्पष्ट रवि, स्पष्टबन्द्र और स्पष्ट पात से ग्रहण स्पष्ट (दृष्टियोस्य) होता है, आर्यभटादि आचार्यों से जो कथित है उससे दृष्टियोग्य नहीं होता है, क्योंकि वे (प्रायं भटादिकथित स्पष्टरवि, स्पष्टचन्द्र पौर स्रष्ट पात) अस्फुट हैं इसलिये तथे प्रक्षेण अस्पष्ट (हजटभ नही) है इति सिद्धान्त- शेखर में "न स्फु भवति पञ्चवंया" इत्यादि संस्कृपपत्ति में लिखित इलोक से, सूचित होता है कि श्रपति ने सूर्यग्रहणध्याय में आचार्यों के के प्रभुरू हो कहा है। “दृग्गणिमैक्यं न भवति" इत्यादि संस्कृतोप गति में लिखित प्रचार्योत पद्य की व्याख्या चतुझवायं इस तरह कहते हैं। पञ्चज्याविधान से सूर्यग्रहण जो आचार्य से कथित है वह यह है 'उदयज्या, मध्यज्या, शङ्कुज्या, दृग्गतिर्या, हंदीपज्या इन से आर्यभटादि आचार्य द्वारा तथा पौलिक- तन्त्र में चन्द्रमा की पध्वज्या स्वदिनगत-शेष, वरसण्ड, न्ति आदियों से कल्पित है । इस तरह बस में दशज्या विधान से रविग्रहण साधन जो कहा गया है वह अमान्त में होता है, उस में जो दोष है उनका तन्त्रपरीक्षा अध्याय में आचार्य कहेगें मैं भी वहीं व्याख्या हण। तन्त्रपरीक्षा अध्याय में "पञ्चज्यया यत्रीग्रहणं” इत्यादि संतोपपत्ति में निश्चित श्लोकोक्त को विचार कर ‘न स्फुटं भवति पञ्जीवया" बह श्रीपति ने कहा है । सूर्यसिद्धान्त में, शिष्यधीवृद्धद में सल्लाचार्य ने पूर्वाह पञ्चज्या ही से सूर्यहरू साधन कहा है, उसको दोषावह समभक जीपति ने आचार्वे (एह्यनुष्ठे) कथित मामं ही का अवलम्बन किया है।२४।।