सूर्यग्रहणाधिकारः शरवशादेव रिथत्यर्धदिसाधनं कृतमतोऽसकृकर्म कर्मेतेनाऽऽचार्योक्तमुपपद्यते । सिद्धान्तशेखरे "बाहुश्चन्द्रग्रहणविधिनैवेष्टकालोद्भवो यः पस्पष्टस्थिति दलहतो भाजित: प्रस्फुटेन । स्थित्यर्धेन स्फुट इह भवेदुक्तवत् कलसिद्धिश्चेष्ट- प्रासाद् गुणकहरयोर्यत्ययेनासकृत् स्यात्” ऽनेन श्रीपतिना सिद्धान्तशिरोमणौ शेषं शङ्कग्रहणोक्तमत्र स्फुटे पुजेनस्थितखण्डकेन । हतोऽथ तेनैव हृतः स्फुटेन बाहुः स्फुटः स्याद् ग्रहणे ऽत्र भानोः” ग्रासाच्च कालानयने फलं यत् स्फुटेन निघ्नं स्थितिखण्डकेन । स्फुटेषुजेनासकृदुद्धृतं तत् स्थित्यर्धशुद्धं भवतीष्टकाल: पठेनानेन भास्कराचार्येणप्याचयक्तानुरूप मेवोक्तम् । (१) अनेनच “भानwहे कोटिलिप्ता मध्यस्थित्यर्धसङ्गुणा । स्फुटस्थित्यर्धसंभक्ता स्फुटाः कोटिक्लाः स्मृताः” सूयं सिद्धान्तोक्तमिदमप्युपपन्नमिति ॥|१८-१८॥ अब इष्टग्रास में और ग्रास से कालानयन में चन्द्रप्रहरु से जो विशेष बातें हैं उनको कहते हैं हि- भा.-चन्द्रग्रहण विधि से इष्टकालोत्पन्न जो भुज हो उसको तात्कानिरू स्फुट शरजनित स्थित्यर्भ से गुणाकर स्पष्ट स्थित्यर्ध (स्पर्शकाल और मध्यकाल के अन्तर ) से भाग देने से सूर्यग्रहण में भुज होता है, इष्टप्रास से चन्द्रग्रहणोक्तवत् सृज को स्पष्ट स्थित्यर्च से गुणकर तात्कालिक स्फुटर जनित स्थित्यषसे भाग देना । इस तरह असकृत् झरने से जो होता है उसको थिरयध में घटाने से फलसिद्धि होती है इति । १८-१६ । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्ष त्र को देखिये । गर्भयदर्शान्त से मागे षष पृष्ठभिप्राय से स्पर्शकाल है उस कात्तिक यह क्षेत्र है । गर=गर्भयरवि, चं=गर्भाषया, स्था=लम्बितरवस्थान, स्था,=लम्बितचन्द्रस्थान, स्थ=गर्भाय च स्थान स्थास्या,= चन्द्रस्पष्टलम्बन, गस्या=विस्पष्टलम्बन, गस्था=र्भयरविचन्द्रान्तरस्थस्था= लम्बितरविचन्द्रान्तर गर्भयरविचन्द्रन्तर+लं-चलं=लम्बितचन्द्रस्थान से समिती रविस्थानपर्यन्त , = गर्भयरविचन्द्रान्तर-लम्बनान्तर-कोटि इसलिये गर्भयरविचन्द्रान्तर-सम्बनान्तर+कोटि, वित्रिभ से पूर्व कपाल में स्पर्घकाल के बाद इष्टpश्व में इष्टकाल=मुर्भयदर्शात--रविचन्द्रान्तरष=गर्भायदन्त कोटिष-लम्बनान्तरघ 'स्फुटतिच्यन्तालस्नानमसङ्गत्’ इत्यादि से स्पसंख= अभयदध-स्फुटस्थेिव - - स्पर्शिकसम्बनान्तरम=गर्मीबदष-फुटस्थि३--,
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