पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/४४१

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४२४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते चन्द्रदृक्षेप) को अपनी अपनी मध्यगति से गुणा कर पन्द्रह गुणित त्रिज्या से भाग देने से रवि और चन्द्र की नति होती है। वा रवि मध्यगति और चन्द्र मध्यगति को रवि और चन्द्र के दृक्षेप तुल्य दृग्ज्या की छाया से गुणा कर पन्द्रहगुणित अपते अपने छाया कर्ण से भाग देने से उन दोनों (रवि और चन्द्र) की नति होती है । दोष के अर्थ स्पष्ट है इति ।। ११-१२ ॥ यह संस्कृतोपपत्तिस्थ (क) क्षेत्र को देखिये । स्त्र=खस्वस्तिक, वि=वित्रिभ, र= क्रान्तिवृत्त में रवि, खर= रविनतांश, लं=लम्बितरवि, खवि =दृक्क्षेपचाप, खलं= पृष्ठीयनतांश, रलं=दृग्लम्बन, लंस्था=रविनति, स्थार= रविस्पष्टलम्वन तब. खरवि, रलंस्था वोनों चापीय जात्य त्रिभुजों के ज्याक्षेत्र सजातीय रहने के कारण अनुपात से. रदृक्क्षप. रदृलंज्या =(स्वल्पान्तर रविनतिज्यारविनति परन्तु =से), . रपलंघ्यारपृदृज्या त्रेि -दूलंज्या, उत्थापन से पलंघ्यारघुष्य :रविनतियहां स्वल्पान्तर रक्षेप . =, से रवृज्या. त्रि पृदृज्या =रज्या, तथा रपलंज्या=रपलं, तब . रपलं रविनतिइसी तरह दृक्षप= , चंदृक्ष. चपलं =चंनति, लेकिन रगक=रपलं, चंगेक = चपलं । अतएव रक्षेरगक १५ १५ त्रि. १५ रविनति, चंदृशै. चंगक -चंनति, इससे प्रथम प्रकार उपपन्न हुआ । यहां यद्यपि चंद्रनति त्रि. १५ साधनार्थं रविनति साधन के सदृश क्षेत्र नहीं बनता है तथापि आचार्य ने रविनति साधन की १२. रट्टक्षे रदृक्ष. रगक विशं तर ही चंद्रनति साधन भी किया है। रविनतिः =पू= विशं त्रि. १५ १२ त्रि १५ x = X रगक १२ चंदृक्षे ‘ चंगक विछाया. रगक → क्र इसीतरह चंद्रनति = चंदृक्षे. चंगक विशं – १५.विद्याकर्ण त्रि. १५ १२ त्रि. १५ x विद्ययाचगक . इन दोनों रविंनति और चंद्रनति के संस्कार से स्पष्टनति होती है १५.