सूर्यग्रहणाधिकारः ४२१ अत्र ‘सौम्य याम्येषुणा रहितयुतमुदीच्या’ मिति श्रीपत्युक्तिः ‘एक दिशो यगो भिन्नदिशोरन्तरमित्युक्त्या' परिवतिता भास्करेणेति ।। ९-१० ॥ अव रवि और चन्द्र के दृग्गति साघन को कहते हैं। हि. भा–उत्तर वित्रिभनति रहने पर वित्रिभलग्न से जो उत्तर वा दक्षिण शर है। उसको वित्रिभलग्न के शंकुचाप में क्रम से हीन और युत करना, दक्षिण नति में उसी शंकु चाप को उत्तर शरचाप करके जोड़ना और दक्षिण शर चाप करके हीन करना तब जो हो उसकी ज्या चन्द्र का वित्रिभशंकु (दृगति) होती है, सूर्य का पूर्वंसाधित वित्रिभशंकु ही वास्तव दृग्गति होता है, वित्रिभलग्न दृङ्मण्डल और क्रान्तिवृत्त के सम्पात में सूर्य की दृग्गति होती है, दृक्क्षेपवृत्त और विमण्डल के सम्पात में चन्द्र दृग्गति होती है अर्थात् दृक्क्षेपवृत्त क्रान्तिवृत्त में जहां लगता है उस विन्दु का वित्रिभलग्नशंकु सूर्य की गति होती है, वही दृक्पवृत्त चन्द्रविमण्डल में जहां लगता है उस बिन्दु का शंकु चन्द्रदृग्गति है इति ॥६-१० ।। दृक्क्षेप वृत्त क्रान्तिवृत्त में जहां लगा है वहां से विमण्डलपर्यन्त दृक्क्षेपवृत्त में स्वल्पा न्तर से वित्रिभलग्नशर है। इसलिये वित्रिभ की उत्तर नति और वित्रिभ के उत्तर शर रहने से दोनों का योग करने से खस्वस्तिक से विमण्डल पर्यन्त दृक्पवृत्त में चन्द्रदृक्षेप चापांश= वित्रिभनतांश+वित्रिभशर, इसको नवत्यंश में से घटाने से चन्द्रदृग्गतिचापांश=६०-वित्रिभन -वित्रिभश=वित्रिभशंचा-वित्रिभश, दक्षिण वित्रिभशर में चन्द्रदृक्प चापांश=वित्रि भनतश –वित्रिभश, अतः शंकुचापांश=६०-वित्रिभन+वित्रिभश=वित्रिभश्चा+ वित्रिभशर। दक्षिण नति में विलोम संस्कार करना चाहिये । इससे चन्द्रदृर्गात साधन उपपन्न होता है। दृक्प वृत्त क्रान्ति वृत्त के ऊपर लम्बरूप है, विमराडल के ऊपर नहीं; इस लिये चन्द्रदृक् क्षेप से जो दृति होती है वह कदम्ब श्रोत वृत्त में नहीं होता है अत: उसका संस्कार करने से स्फुट नति नहीं होती हैभास्कराचार्ये भी पहले इस मत के अनुसार दृग्ज्यैव या वित्रिभलग्नशंकोः" इत्यादि से चन्द्रदृक्षेप साधन कर उसके वस से स्पष्टनति कर के पीछे सूर्यग्रहणाचिकारान्त में ‘शशिदृक्क्षेपार्थो यद्वित्रिभलग्नेषुणात्र संस्करणम्" इत्यादि से इस आनयन को खण्डित कर दिया, यहां सौम्ययाम्येषुणा रहितयुतमुदीच्याम्इस श्रीपत्युक्ति को भास्कराचार्य ने ‘एकदिशोर्योगो भिन्नदिशोरन्तरम्” से परिवर्तित कर दिया है, इति ।। ६-१० ॥ इदानीं स्पष्ट नतिमाह। त्रिज्यावर्गाचूनौ स्वशर्वर्गेण तत्पदे दृग्ज्ये । रविशशिमध्यगतिगु तिथिगुणितव्यासदल भक्त ॥११॥
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