सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/३८७

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

७० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते है इन दोनों का आचार्य ने तुल्य मान लिया हैं तथा चंपरमशरज्या = चंपरमशरएवं चंमध्य शरज्या=चंमध्यमशर स्वीकार किया है, जो कि अनुचित है, अतः वास्तवानयन करते हैं । चन्द्र विमण्डलीय भुजांश, सपात चन्द्रभुजांश, और चन्द्रमध्यमशर इन तीनों अवयवों से उत्पन्न चापीय जात्य त्रिभुज में चन्द्र विमण्डलीय भुजांश और सपात चन्द्र भुजांश से उत्पन्न कोण - चंप रमशर, तब उक्त त्रिभुज में ‘भव्यजा दोज्य त्रिज्या गुणा प्रान्त्यस्पर्श रेखा हृतिशैत्रे ’ इससे तथा ‘तत्कोटिमेव गृहणीयात् स्थाने श्रवणकोणयोः' इससे भी चंपरमशकोज्या त्रि= चंपरमशकोज्याः त्रि स्पर्चाविमण्डलीय भुकोज्याः स्पसपातचं भुज्या अतः स्पसपात चक्षुज्या लीय भुकोज्या, स्पर्शरेखा खण्डों से इसका चाप कर के नवत्यंश में से घटाने से चन्द्र विमण्डलीय भुजांश का ज्ञान हो जायगा, तब पूर्व कथित चापीय जात्य त्रिभुज में भुजकोटिज्या और कोटि कोटिज्या का घात त्रिज्या और कर्ण कोटिज्या के घात के बराबर होता है इस नियम से त्रिं. (विमण्डलीय भुकोज्या = बशर कोज्या सपात चं भुकोज्या त्रि. चंविमण्डलीय भुकोज्या =चंशर कोज्या, इसके चाप को नवत्यंश में से घटाने से चन्द्रमध्य सपात चं भुकोज्या मशर होता हैसिद्धान्तशिरोमणि में भास्कराचार्य ने ‘‘सपाततात्कालिकचन्द्रदोज्य' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से आचार्योंक्त के अनुरूप ही कहा है, सिद्धान्त शेखर में श्रीपति ‘पातोनितस्य समलिप्तशीतरश्मेः" इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित पद्य से चन्द्र का शरानयन किया है यह भी आचार्योंक्त के अनुरूप ही है केवल श्रीपति ने पात के चक्र (बारहराशि) में शुद्ध होने के कारण सात चन्द्र मुजश्या स्थान में विपातचन्द्रभुजज्या ग्रहण किया है, और विपात चन्द्र भुजया के गुणक चन्द्रपरमशर २७० को तथा श्रीपयुक्त त्रिज्या = ३४१५ हर को पांच से अपवर्तन कर देने से श्रीपति का पद्य उपपन्न होता है इति ॥ ५ ॥ इदानीं रविचन्द्रतमसां बिम्बान्याह रविशविमुक्ती भवदशगुणे नखैः स्वजिनेवैते माने । तत्त्वाष्टगुणितमुत्तयोर्विवरं षष्यहृतं तमसः ॥ ६॥ सु० भा०--रविशशिभुक्त भवदशगुणे नखैः स्वरजिनेतृते अर्थाद्रविगति रेकादशगुणा नख २० हूता । चन्द्र गतिदंशगुणा स्वरजिलै २४७ हृता तदा रवि चन्द्रयोर्मानेि बिम्बमाने भवतः । तत्त्वाशुणितभुक्त्योः पञ्चविंशति गुणरविंगतेरष्ट गुणितचन्द्रगतेदेव विवरं षष्टयाहृतं तमसो राहवम्बमानं भवेत् । अत्रोपपतिः। ‘भानोर्गतिः स्वदशभागयुताचिता वेत्यादिभास्करविचिंना