चन्द्रग्रहणाधिकार ६ २७० स्य, श्रीपन्युक्तत्रिज्याया ३४१५ भाजकरूपायाश्च पञ्चभिरपवनेन ध्रपन्युक्त- पद्ममुपपन्नौ भवतीति ॥ ५ अव तियन में चन्द्रशरकलानयन को कहते हैं । हि. आ-सपात नाकालिक चन्द्रमुजज्या को दो सौ मनर २७० में गुणा कर त्रिज्या से भाग देने से फल चन्द्रशर कला दोनी है, संपात चन्द्र के छः राशि से कम रहने से उम (मारकला) की दिशा उनर होती है, तथा छः राशि से अधिक रहने में मारकला को दिशा दक्षिण होती है इति ।। ५ ।। क्रान्तिवृत्त और विमर्डन के सम्पात पात संशक है, पात स्थान से नवत्यंश्च भ्यामात्रं वृत्त उन दोनों (क्रान्तिवृत्त और विमडल) वृनों के परमान्तर वृक्ष है, क्रान्तिवृत्त और विमण्डल के अन्तर्गत परमान्लर तृतीय चाप परमार है, विमण्डन में जहां चन्द्रबिम्ब केन्द्र है। उसके ऊपर कदम्ब प्रोत वृत करने से क्रान्तिवृत्त में जहां लगता है वह अन्द्र स्थान है, चन्द्रबिम्ब केन्द्र से चन्द्र स्थान तक कदम्बश्रोतवृत्त में चन्द्र के मध्यमशर है, पात स्थान से चन्द्रबिम्ब केन्द्र तक चन्द्र के विमण्डलीय भुजांस कणं, पातस्थान से चन्द्रस्थान तक सात चन्द्रभुजांश कोटि, चन्द्र मध्यमशर भुज इन तीनों मुषों से उन्पन्न एक चापीय चात्य त्रिभु तथा पातस्थान से परमान्तर वृत्त और विमग्डम के सम्पात पर्यन्त विभडल में नवत्षंश, पातस्थान ही से परमान्तरवृत्त और क़ालिबूत के मग्पात पर्यन्त क्रान्तिवृत में नवमोक्ष, परमान्तर वृत्त में चन्द्र परमशरइन तीनों पुत्रों से उत्पन्न द्वितीय चापीय भाषा त्रिभुज, इन दोनों चापीय जात्य त्रिभुजों के ज्याक्षेत्र जातीय है इसमिये अनुपात करते हैं यदि त्रिज्या में चन्द्र परमशरज्या पाते हैं तो विमण्डलीय बन्द भुषज्या में या इस अनुपात से घन- चन्द्रपरमस. बनविमडभाष या मध्यम शरज्या आती है तभरीम" " ऽ = बंमध्यमशरथा, परन्तु यहां इन्द्र विमग्नसीब भूयांस विदित नहीं है, बलिवागत सुपात बनशुद्धांश्च विदित है इसलिए आचार्य ने अनात विमर्हसीय क्षुवांश तुल्य ही सुपात बन्द भुबांक्षा को स्वीकार किया है तब परमशण्या. सुपातयज्य = "अध्यमक्षरन्या, ला क्या और पथ में परमबxशात भगेइल की स्वीकार किया है तल पर प्रस - सवार = २७०४ संघात पंगुश्या वह क्षर पात बन गोल विश्व का होता है अर्थात् वर्षात बन बिल गोल में रहते हैं उसी बोस का हो है इस्रोचे आखार्यात उषष हुआ, परशु यह आगमन ठीक नहीं है क्योंकि विपदशीव बन चुका हो गया है और यह बलमुचां कोटेि माप =
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