पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/३७३

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३५६ देखने से मध्यनतांश के अपचय (ढ्स) से मध्य सङ्कु के उपचय (वृद्धि) से मध्यच्छाया का उत्तरोत्तर अपचय होता है इसलिए पलभा से अल्प मध्यच्छाया का उत्तरोत्तर अपचय होने से रवि का प्रथम पद होता ही है, द्वितीय पद में मध्यनतांश उत्तरोतर बढ़ है जबतक तुलादि सम्पात में रवि जता है. इसलिये प्रलभा मे अत्र उत्तरोत्तर वृद्धिमती मध्यच्छाया होने से द्वितीय पद होता है, तृतीय पद में मध्यच्छाया पलभा से अधिक उत्तरोत्तर उपचित होती है (वि के दक्षिण गमन के कारण से), चतुर्थे पद में पुनः उत्तरगमन प्रवृति से उत्तर तर नतांश का अपचय होता है इसलिए पल भा से अधिक या प्रश्चयमती होती है, अत: ‘‘मधे पदेऽपचयन’ इत्यादि युक्तियुक्त कहा गया है । निरक्ष देश से दक्षिण देश में प्रथम पद में मध्यनतांश के उपचय से मध्यच्छाया का उपचय होता है लेकिन वहां स्वखस्वस्तिक से उत्तर में रवि के रहने के कारण छयग्र दक्षिण दिशा ही में होता है इसलिये “वृद्धि प्रयान्ती यदि दक्षिणाग्रा इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित पद्य युक्तियुक्त कहा गया है. द्वितीय पद में रवि के उत्तरोत्तर दक्षिण गमन के कारण अध्यनतांश के अपचय से मध्यच्छाया का अपचय होता है, तृतीय पद में और चतुर्थ पद में नतांश के उपचय और अपचय के अनियम से वहां मध्यच्छया द्वारा एक नियम से पदज्ञान नहीं होता है, ये सब बातें गोल को देखने से स्पष्ट हैं, सिद्धान्तशेखर में ‘‘आी पदेऽपचयिनी” इत्यादि चमत्कृतियुक्त प्रकार देखा जाता है । इस से सिद्ध होता है कि यह रवि का पदज्ञानप्रकार वस्तुन: श्रीपति ही का है, कभलाफ़र का नहीं है इति I६१-६२॥ इदानीं दन्द्रशृङ्गोन्नतो रविशङक्वर्यु विशेषमाह शशिभ्ङ्गवेन्नत्यर्थं रात्रेर्गतशेषनाडिका शङ्कुः। विपरीतगोलविधिना रात्रपर्धार्यान्तराभिर्वा ६३॥ सु. भा–पश्चिमदिशि धुञ्जन्नत्यर्थं रागेतनाडिकाभिरुन्नताभिः प्राग्दिशि च रात्रिशेषनाडिकाभिरुन्नताभिः ‘शतशेषमस्याह्नःइत्यदिना विपरीत- गोलविधिना रवेः शङ्कुः साध्यः । यदि नताभिनडीभिरर्कशङ्कुरपेक्षितस्तदा राभ्यर्घकन्तराभिनंतनाट्टिकाभिः स शङ्कुरानेयः । अत्रोपपत्तिः । ‘निशावशेषेरसुभिर्गीतैव' इत्यादि भास्करश्चह्नोन्नतविचिना दृश्यशृङ्गोन्नतो रवेः क्षितिजाधःस्थितत्वादधोयाम्योत्तरवृत्तान्नत कालोऽपेक्षितोऽतो राज्यर्वान्तरतो नतनाडिकासाघनायातिदेशं चकारा ऽऽचार्यः ॥३॥ वि. भा.-पश्चिमायां दिशि चन्द्रशृङ्गोन्नत्यर्थं रात्र गंतनडिकाभिः (:) पूर्वस्यां दिशि राविशेषनाडिकाभिः (उन्नताभिः) ‘गतचेषाल्स्याद् इत्यादिना विपरीतगोलविधिना रवेः शङ्कुः साध्यः । यदि नाभिनन