पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/३६७

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३५० ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते हीना युक्ता नियतममुना दक्षिणेनाक्षभा स्यात् । एवज़ मेषप्रभृतिषु गते भास्करे भेषु षट्सु कादिस्थे द्यतिमति तत्रैवान्तरं वजितं रया" श्रीपत्युत्त मिदमचर्योक्तश्लो- कान्तरमात्रमेवेति ।५८।। अव प्रकारान्तर से पलम ज्ञान को कहते हैं हि- भा.-मेषदि छः राशिम में अर्थात् उत्तर गोल में उत्तर प्रन्तर अर्थात् द्वादश इगुल इड्कु मूत्र और पूर्वापर रेखा के अन्तर (भुज) को छायावणं वृत्ताग्रा में घटाने से तथा दक्षिण अन्तर (दक्षिण मुंब) को जोड़ने से पलभा होती है, तुलादि छः राशियों में अर्थात् दक्षिण गोल में उस अन्तर (४ जमान) में छायाकर्णवृत्ता को हीन करने से पलभ होती है इति ॥५८॥ उपपत्ति .. पभा. इशं छायाव एंगोल में शकुतल, पलभा के बराबर होता है जैसे १२ त्रि. १२ पभा. त्रि. १२ तल, :- “इशं अतः उत्यापन देने से - छक-= शङ्कुतल, इसको छाया क १२• पभा. त्रि. १२. छ क कणं गोल में परिणामन करने से १२. छक=िपभा =छायाकणंगोलीय शकुतल, उत्तरगोल में समप्रवेश से पहले छाया वृत्ताम्रा में शङ्कुतल तुल्य पलभा को घटाने से उत्तर भुज होता है इसलिये छायावृत्त ग्र में उत्तर भुज को घटाने से पलभा होती है, सम प्रवेश से ऊपर पलभा में छायाकर्णवृत्तग्रा घटाने से शेष दक्षिण मुज होता है इसलिए इस भुष को उस पpा में जोड़ने से पलभ होता है, दक्षिण गोल में सदा छायाकर्णावृत प्रा और पलभा का योग करने से भुज होता है अत: भूत्र में छायाकर्णं वृत्ताग्रा को घटाने से पल भा होती है, सिद्धान्त शेखर में "अग्राच्छायावलयविहिता सैव सस्यान्तरेण’ इत्यादि संस्कृतो पपति में लिखित भीपति-प्रकार आचार्योंक्त के अनुरूप ही है इति ॥५८ इदानीं मिष्टच्छायावृत्त पलभाप्रयो संस्थानमाह इष्टच्छायावृत्तं तदप्रयोर्यदुदयास्तमयसूत्रम् । अनुपातात्तच्छवष्णुवच्छायान्तरमिहाग्रा ॥५॥ सु. मा-इष्टेच्छयावृत्ते पूर्वापराशयोर्ये तदग्रे अर्थाच्छायावृते परिणते अन्न तयोर्गतं सूत्रमुदयास्तसूत्रम् । तच्छङ्कोः । तस्य रवेः शङ्कुस्तच्छइकुस्तस्याः नृषाता प्रपातात्मूलादुदयास्तस्त्रपर्यन्तमन्तर विष्वङ्ग्या भवति । एवमिह स्मिन् ॐ यादृतं भूषविब्रुवतोभ्यामश्रा च ज्ञ या इति फलितार्थो बोध्यः ।