पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/३४७

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ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते

३३0॥

योस्तयोरन्तरं तदा मध्याह्न नतांशा भवन्ति, नवतेर्नतांशान् विशोध्य शेषा उन्नतांशा बोध्या इति।।४७।।

                 अत्रोपपत्तिः

यदि मघ्यान्हकाले खस्वस्तिकनिरक्षखस्वस्तिकयोर्मध्ये याम्योत्तरवृत्ते रवि- स्तदा रवितो निरक्षखस्वस्तिकं यावद्रविक्रान्तिः। खस्वस्तिकनिरक्षखस्वस्तिकयोरन्त- रमक्षांशा अत्र द्वयोरन्तरेण विनतांशा रवितः खस्वस्तिकं यावत् । यदि च निरक्ष- खस्वस्तिकाद् दक्षिणे रविस्तदा रविनो निरक्षखस्वस्तिकं यावत्क्रान्तिः। अत्राक्षां- शरविक्रान्त्योः समदिक्कयो (अक्षांशाः सर्वदा दक्षिणा, नाडीवृत्ताद्रविर्दक्षिणेऽस्त्यतः क्रान्तेरपि दिक्ढक्षिणा) यौगेन रविमध्यनतांशा भवन्ति, खस्वस्तिकासमस्थानं यावन्नवतिरत्र नतांशशोधनेन रवितः समस्थानं यावन्मध्योन्नतांशः स्युः । सिद्धान्त- शेखरे “मध्यन्दिनोष्णक्रिरणापमचाषभागस्वाक्षांशयोगविवरं सदृशान्यदिक्त्वे । याम्योत्तरा नतलवास्तरणेः खमध्यात् तेऽयुनत निपतिता नवतेर्भवेयुरिति" श्रीप- युक्त सिद्धान्तशिरोमणौ "पलावलम्बवपमेन संस्कृतो नतोन्नते ते भवतो दिवादले लवादिकं वा नवतेविशोधितं नतं भवेदुन्नतमुन्नतं नतम्" इतिभास्करोक्तञ्चा- ऽऽचार्योक्तानुरूपमेवेति॥४७।।

     मव मध्याह्नकालिक नतांश और उन्नतांश साधन को कहते हैं।

हेि. भा.-एक दिशा में रविमध्यक्रान्ति पौर अक्षांश का योग करने से और भिन्न दिशा में अन्तर करने से रवि का मध्यनताम्श होता है, नतांश को नवत्यंश में घटाने से शेष उन्नतांश होता है इति ॥४७।।

               उपपति

मध्याह्नकाल में यदि खस्वस्तिक और निरक्षखस्वस्तिक के मध्य में रवि है तब रवि से निरक्ष सस्वस्तिक पर्यन्त रवि की मध्यजन्ति उत्तर दिशा को है क्योंकि नाडीवृत्त से रवि उत्तर में है, तया अक्षांश की दिशा सर्वदा दक्षिण है इसलिए भिन्न दिशा की रविक्रान्ति और अभय का अन्तर करने से रवि से सस्वस्तिक पर्यंत रवि का नताम्श् होता है, यदि निरक्ष क्षस्वस्तिक से रवि दक्षिण है, तब अक्षांश ओर क्रान्ति की दिशा एक ही दक्षिण होने के फारस दोनों का योग करने से नताम्श् होता है, खस्वस्तिक से समस्थान तक नवत्यंश्च में नतांत्र को घटाने से निरक्षन्खस्वस्तिक से समस्थानपर्यन्त मध्य उन्नतांत्र होता है, सिद्धान्त- शेखर में "मध्यन्दिनोष्णुकिरणापमापभागस्याक्षांशयोगविवर" इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में निश्चित असोक वे भलपति तथा विद्वान्तशिरोमलि में "पतावलम्बावपमेन संस्कृते’ इत्यादि संस्कृतौषपति में विधित इतोक से भास्कराचार्य ने श्री | आचार्योक्तमनुरूप ही कहा है ।।४७।।