२६७ पाहिये, मरूयय के मुन्त्र पर पुच्छगत सूत्रों के योग से जो वृनपरिधि होती है, वह छायाग्र स्पर्शीकारक वृत्त (छायाभ्रमणवृत) होता है, इसलिये वह वृतघ्रा हो छायभ्रमण रेखा होती है. इकु मूल और छायाभ्रमण वृत्त का जो अन्तर है, वहीं मध्यच्छया होती है, वह उत्तर या दक्षिण होती है, जिनाधिकाक्षांश देश (चबीभ अश से अधिक अक्षांश वाला देश) में मध्यच्छाया सदा उत्तर होती है, उत्तरगोल में जिनाल्साक्षांश देश में अब रवि को उन रा ऊनि ! अक्षांशाविक होती है तब मध्याह्नकाल में माइकु की जय दक्षिणाभिमुखी होती है, सूर्यसिद्धान्त में भी 'इष्टेऽह्नि मध्ये प्राक् पदचान इत्यादि से' इसी तरह कहा गया है, लल्लाचायं ‘यो मत्स्यपुच्छमुखनिर्गतरन्बुयोगः’ संस्कृत इत्यदि भाष्य में लिखित इलोक से तथा 'मत्स्योदरद्यगमूत्रयुतेश्च तस्याः’ इत्यादि से तथा शङ्कुप्रभाभ्रमणमण्डलयोः' इत्यादि से भी, श्रपति भी आचार्योक्तानुरूप ही कहते हैं। इति ॥ २-३ ।। उपपति यदि एक दिन में रवि की प्रन्ति (स्थिर हो । तब अहोरात्र वृत के प्रतिबिन्दुस्य रत्रि केन्द्रों से दावणगत किरणसूत्र (शङ्क्यमगत रेखायें) बहाँ-पृष्ठक्षितिज धरातल में लगते हैं उन स्थानों में शमून तक छाया है। शाखाओं के स्वरूप देखने से सिद्ध होता है कि झाडू. के अग्र से अहोरात्रवृत्त के आधार पर सूची बनाईये उस पृष्अक्षितिब घरातल से काटने से जैसा वक्र बनता है वैसा ही आश्रमण मानें होता है. मेश वासियों फा क्षितिजवृत्त नाडीवृत्त है, वह महोरात्रवृत्त के समानान्तर है इससिपे कश्चन से अहोरात्रवृत्ताधारा विषमसूची पृष्ठक्षितिजरातल नावृत धरातल के समानान्तर घरातल) से कईटत होकर कटित प्रदेश को वृत्ताकार बनाती है , इससे सिद्ध होता है कि मेरु में सदा छायाभ्रमणमार्ग वृत्ताकार होता है, सिद्धान्तकार, सल्भाचार्वे, अह्मगुप्त आदि आचार्यों ने छायाभ्रमणमार्गे वृत्ताकार को स्वीकार किया है वह मेरे ही में ठोक हो सकता है, क्योंकि मेरु से अन्यत्र खाक देश में न्यूनाधिक अ. वश्व से रेल में, तृत में, परवलय में, दीर्घवृत्त में मतिपरवलय में छायाभ्रम होता है, निरक्ष वेध में विद्वान में नाडीवृत्त में रवि के श्रमण से भर नाडीवृत्त भरातल में शराब के फ़ने के कारण शकुचप्र से नाडीवृस रूप अहोरात्रवृत्ताधार सूची का अभाव होता है इसलिये निरञ्जबितिष धरातल और नाडीवृत्त धरातल की गोनरेडा (निरझषधर रे) भाभ्रमरेश होती है, सन देशों में सदा आषाभ्रमण गुंत में नहीं होता है इव विषय को वेग करके ही खिलाडान्त शिरोमणि में भास्कराचार्ग ने भित्रितबाद् आश्रमखं न सुखं स्वादि वे बृतार आबाभ्रमण मार्गों का सडन किया है, जो बहुत ही ठीक है इति ॥२-॥ इदानीं द्वादशाङ्ग मासु खानयनमाह धबायूते-जा कई याद ताकत अनुवष्यया व तदन्वीयं सूचया ॥
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