पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२५२

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

२३५ बुध के पश्चादुदय केन्द्रांश=५०, इसको ३६०° चक्रांत में घटाने से शेष ३१० इन्नने केन्द्रमा में पूर्व दिया में अस्त होते हैं। शुक्र के पश्चिमोदयकेन्द्रांश=२४, चां4३६० में घटने मे शेष ३३६ इतने केन्द्रमा में पूर्व दिशा में प्रस्त होते हैं। वृघ के पश्चादुदय केन्द्रम् १५५ इनको चत्रांग में घटाने से शेष २०५ इन केन्द्रों में पूर्व दिशा म उदय होते हैं। शुक के पश्च- दहमय केन्द्रांश १७७ इनको बक्रांश में घटाने से शेष १८३ इन केन्द्रांशों में पूर्व दिशा में उदित होते हैं इति ॥५२-५३॥ कुज-गुरु और मनैश्चर इन सबों का रवि ही शत्रोच है, शीघ्रोच्च स्थान में उन सबों का परमास्त होता है, उन सबों से रवि के शीघ्रगतित्व के कारण रवि मागे चला जाता है, जब कालांश तुल्य अन्तर होता है तो रवि के सानिध्यवश से रत्रिशेष सबों में उन का उदय होता है, इसलिये कालांशतुल्य स्पष्टकेन्द्रांश में जो फलचाप होता है उसको कालश में जोड़ने से उनके उदय केन्द्रांश होते हैं। जैसे यदि त्रिज्या में कालांशे तुल्य स्पष्टकेन्द्रांश की ज्या पाते हैं तो अन्त्यफलज्या में क्या इस अनुपात से कालांश तुल्यस्पष्ट केन्द्रांशज्या जनित फलज्या आती है। मुंफण्याङ्गानांशज्या -इसके आप में कालांश जोड़ने से कु, गुरु भौर शनैश्चर इन सबों के उदय केन्द्रांश होते हैं, इससे म- म. पण्डित मुधाकर द्विवेदी का सूत्र उपपन्न हुआ, "कालांशषीवाऽन्याज्ययाष्नी त्रिज्ययाप्ता” इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित सूत्र को देखिये । प्रतोत्सवंमषित देखिये, जैसे कुग की प्रफलज्q=८१. सांस=१७ कालरज्या.अफज्या कालांशज्या= ३५, त्रिज्या = १२०, तर उपरिलिखित सूत्रानुसार ३५८१ =ज्या, इसका चाप= १९ कालांश जोड़ने से ११+१७°=२८'= १२ कुर के उदय केन्द्रांश, इसी तरह गुरु पौर बनेअर का उदय केन्द्रांश नाना साहैिं । दुध और शुक्र के भराबर ही सबमरनि होते हैं सके बराबर ही मन्वस्पष्ट हुण व शुद्ध को मानकर स्पष्ट बुभ मा स्पष्ट सूक के साथ सांछ तुम अन्डर पर पश्चिम दिशा में सांसज्यानि उनके उदय को । देखते हैं, तब साध्याश्=स्पकंज्या, इसने आप में कालांश्च शोडने से प्रश्नपद में पश्चिमोदयकेन्द्रीय होता है, द्वितीयपव में नवता को प्राप्त कर रति से मल्पतित्व के कारण वहीं पर वे दोनों (नुष, शुक) अस्त होते हैं, तृतीयपद में उन दोनों का फिर उदय होता है, नीच स्थान में उन दोनों का परमास्त होने से रात्रि शेष में पूर्व दिशा में वह उदय देखा जाता है, अतुवंपद में उन दोनों के कामांशान्तर पर रहने के कारण वे वहीं पर अस्त होते हैं इसलिये पूर्वोदय सेन्द्रांश=षाप-झालांश+१८० =षा