पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/१६७

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१५० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते मध्ये इष्टचापाग्री भवेत्तदा पदादिबिन्दुत इष्टचपाग्र यावदिष्टचपकला यास्तास्तत्त्वाश्वि २२५ भिर्भज्यास्तदा या लब्धिस्तत्संख्यका गतज्या भवेयुः शेषचापादनुपातो ‘यदितवाश्व २२५ भिर्गतैष्यज्ययोरतरं लभ्यते तदा शेषचापान किमिति,लब्धिः दोषचापसम्बन्धिनी ज्यावृद्धिरेतया युता गतज्येष्ठा भवतीति परं शेष चापसम्बन्धिज्यावृद्धयर्थं यो ह्यनुपातः कृतः स च न समीचीनः कथमित्युच्यते । में के=वृत्तकेन्द्रम् । नम=वृत्तपादः |ज =&०, चज=गतज्या, रश=एष्यज्या, () तत्र नप=इष्टचापम्, पस=इष्टज्या, चर लंडन =२२५, रय=एज्या-गतज्या, चपः = शेषचापम् । पट=शेषचापसम्बन्धिनी ज्यावृद्धिः।केरन=e०,केपम =६० रकेशकोणः> पकेसकोणात् : केरश कोण < केपस कोण तेन चरय कोण >चपट कोण अतः चरय, चपट त्रिभु - जयोविजातीयत्व (एज्या-गज्या) x शेषचा २२५ देतादृशोऽनुपातो न भवितुमर्हत्यत आचार्योक्तमिषुचापज्यानयनं न युक्तियुक्तमिति सिद्धम् । परमिष्टज्यानयनार्थं सूर्यसिद्धान्तकारसिद्धान्तशेखरकारप्रभृतिभिः प्राची नाचार्योर्भास्करप्रभृतिभिस्तदर्वाचीनैश्चायमेव विधिगृहीत ॥१०॥ अब इष्टचाप के ज्यानयन को कहते हैं हि- भा.-जिन कलाओं का ज्या साघन करना हो उन चाप कलाओं को दो सो पच्चीस २२५ से भाग देने से जो लब्धि होती है तत्संख्यक गतज्य होती है, शेषचाप का गतज्या और एष्यज्या के अन्तर से गुणा कर दो सौ पच्चीस से भाग देने से जो लब्धि होती है उसको गतज्या में बड़ने से इष्टज्या होती है इति ।१०।। वृत्त के चतुर्थांश ७० में पदादि बिन्दु से २२५’ कला वृद्धि करके चापों की चोबी स संख्यक ज्या पहले पति की गई है । यदि उन दो चापों के मध्य में इष्टचापाग्र हो अर्थात् उन दो ज्याओं के बीच में इष्टज्या हो तब उसका ज्ञान कसे होगा तदर्थं विचार करते हैं, इष्ट चाप कलको दो सौ पच्चीस २२५ से भाग देने से जो लब्धि होती है तत्संख्यक गतज्या सम- झनी चाहिए! शेष चाप से अनुपात करते हैं यदि दो सौ पच्चीस २२५ में गतज्या और एष्यण्या का प्रन्तर पाते हैं तो शेष चाप में या इससे लब्धि शेषचाप सम्बन्धिनी ज्यावृद्धि