पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/१४०

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मध्यमाधिकारः १२३ कल्यादिपर्यन्तमेकं, कल्यादित इष्टवर्षपर्यन्तं द्वितीयम् ) कृत तदा तदुत्थापनेन कल्पग्रहभगण (कल्पादितः कल्यादिपर्यन्तवर्प/कल्यदितो गत वर्षाणि कल्पवर्षे कल्पग्रभ४कल्पादितः कन्यादिपर्यन्तवर्ष , कल्पग्रभ कल्यादितो गनवर्षाणि =

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= कवर्षे =इष्टवर्षान्ते भगणादिग्र । अत्र प्रथमखण्डे यद्रभगणनेषमनं तस्य क्षेत्रसंज्ञा कृताऽs चार्येणेत्येतावताऽऽचायतमुपपन्नम् सिद्धान्तशेखरे श्रोपांतना। प्रथमखण्डजनितफल- स्यैव ग्रहभुवसंज्ञा कृता, यथा तदुक्तं, यातवषखगपर्ययाहृते कल्पवर्षविहृते ग्रह- ध्रुवाः । ते भवन्ति रविमण्डलान्तिका इति ॥५२-५३५४-५५-५६-५७ अब कलिगतवयं ही से शुद्धि आदि के आनयन के लिए विशेष बात और रविवर्धन्तकालिक ग्रहानयन के लिये प्रकारान्तर को कहते हैं । हि. भा.-पूर्ववत् कलिगत शुद्धि साधन करना अर्थात् पहले कल्पगत वषों से जिस तरह शुद्धि लायी गई है उस तरह कलिगत वर्षों से साधन करना, किन्तु कलि के प्रादि में शुक्रवार था इसलिये वपंपति की गणना शुक्रवार से होती है । श्लोकों में जो पठिताऊ हैं वे मङ्गल, बृहस्पति, शनैश्चर इन ग्रहों के, रवि और चन्द्र के मन्दोच्चों के, बुध ओर झुक के शीघ्रोचों के तथा चन्द्रपात के क्षेपसंज्ञक हैं, कलिगत वर्षों के और ग्रह भगणों के घात में पाठयठित अपने-अपने क्षेप जोड़कर कल्पवर्षे से भाग देने से जो भगणादि लब्धिप्रमाण आता है वे रविमण्डलान्तिक ( रविवर्धन्तकालिक ) मध्यम ग्रह होते हैं उनमें मेषादि दृगण फल ( लघ्वहगंणोत्पन्नग्रह ) को जोड़ने से अभीष्ट वर्षान्त में मध्यम ग्रह होते हैं इति ॥ ५२,५३,९४,५५,५६,५७ ॥ रविवर्षान्त में ग्रहानयन के लिये अनुपात करते हैं, यदि कल्पवर्ष में कल्प ग्रह भगण पाते हैं तो कल्पगतवर्षे में क्या इस अनुपात से अभीष्ट वर्षान्त में भगणादि मध्यमग्रह आते हैं। कल्पग्रहभ x कल्पगतवर्षे '=प्रभीष्टवर्षान्त में भगणादिग्र, यहाँ आचार्य ने कल्पगतवर्षे कल्पवर्षे के दो खण्ड कल्पादि से कल्यादि तक प्रथम खण्ड, और कल्यादि से इष्टवर्षान्त तक द्वितीय खण्ड' किये हैं, तब इनसे कल्पगतवर्ष के उत्थापन करने से कग्रभ x कल्पदि से कल्यादितकवर्षे . कप्रभx कलिगतवर्षे =अभीष्टवर्षान्त में भगणदिग्र, कल्पवर्षे " यहाँ में जो भगण शेष रहता है उसी का नाम आचार्य ने झेप रखा है। इसके प्रथम खण्ड प्राचार्योक्त उपपन्न हुआ । पूर्वोक्त प्रथमखण्डागतग्रहों को सिद्धान्तशेखर में श्रीपति ‘थातवर्षे खगपर्ययाहते कल्पवर्षविहृते ग्रहध्रुवाः । ते भवन्ति रविमण्डलान्तिकः' इससे ग्रह ध्रुवा । कहते हैं इति ।। ५२-५३-५४-५५-५६५७ ।।