ब्यभिचरात् प्रमेयत्वे, उ व्यमिचारादसामर्यम्, पू व्यवहारे परोपाचैौ, पू शक्यापूर्वविशेषस्य, उ राईयते ग्रहणेऽप्येवम्, उ शब्दस्तदर्थंकार्यत्वे, पू शब्दादेव मिते योऽपि, उ शब्दाद्वुधानुमानम्, उ शब्दाद्यदात्मविज्ञानम्, पू शब्दार्पितेन रूपेण, पू शब्देन निश्चये तस्मात् , उ शब्दैकगम्य उक्तः स्यात् , पू श्वेते पीतश्रमो , पू संबन्धमात्रावसितम्, उ संहृतास्विलमेदोऽतः, पू सति स्मृतविवेके च, उ सत्तां. न साधयत्येव, पू सतान्वयातु तत्सिद्धि, उ सदन्तरेऽपि सोऽस्त्येवपू सद्यः प्रक्षालयन्ती, उ समवायकृतं तच्चेत्, पू समानमेतदर्थं च, पू सर्वज्ञानानि मिंया च, उ सर्वत्र पुरुषार्थत्वम्, सर्वत्र स्यात्तथाभावः, |
पुट. काण्ड. करिक. 44 8 151 144 8 151 62 2 16 156 4 1 45 8 160 147 3 16B 104 8 78 104 82 74 151 8 17B 76 14B 3 140 140 8 180 68 111 8 90 B7 140 8 184 185 8 114 185 8 112 B7 8 62 159 12 60 2 13B 112 9B 1418 187 146 159 8 उ99 |
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ब्रह्मसिद्धिकारिकानुक्रमणिका