पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/८६

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

करणीषडम् | ७६ रूप की रीति से है करणी की रीति से नहीं, यदि करणीरीति से होता तो ' वर्गेण योगकरणी विहृता विशुध्येत् - ' इसप्रकार से अलग करना सुलभ था परंतु प्रकृत में रूपरीति से करणियों का योग है इसलिये 'चतुर्गुणस्य घातस्य युतिवर्गस्य चान्तरम् । राश्यन्तरकृतेस्तुल्यं—' इसप्रकार से अलग करना चाहिये । यह प्रकार एकवर्णमध्यमाहरण में लिखा है। यहां रूप, करणीयोग और रूपवर्ग करणी योगवर्ग है, वर्गराशि में जितने करणीखण्ड हैं वे पहिली दूसरी आदि करणियों के चतुर्गुण घात हैं, उनका योग पहिली करणी और शेषकरणी योग का चतुर्गुणं घात है, पहिली करणी और शेष करणियों का योग योगवर्ग है, इसलिये उन दोनों का अन्तर करने से पहिली करणी और शेष करणियों के योग का अन्तरवर्ग सिद्ध होता है, इसलिये 'वर्गे करण्या यदि वा करण्योस्तुल्यानि रूपाण्यथ वा बहूनाम्। विशोधयेद्रूपकृते:- ' यह कहा है | इसप्रकार अन्तर वर्ग का ज्ञान हुआ, इसका मूल पहिली करणी और शेष करणियों के योग का अन्तर होता है और रूप उन्हों का योग है, तो योग और अन्तर के ज्ञान होने से ‘योगोऽन्तरेणोनयुतोऽर्धित : - इस संक्रमणसूत्र से उन रा- शियों का जानना सुलभ है । इसलिये 'पदेन, शेषस्य रूपाणि युतोनितानि, पृथक्कदर्षे करणीद्वयं स्यात् - ' यह कहा है । इसप्रकार पहिली करणी और अवशिष्ट करणीयोग हुआ, मूल में दो करणी आई उनमें से किसे पहिली करणी मानें और किसे शेष करणियों का योग, तो करणीयोग में महत्त्व होना और एक करणी में अल्पत्व होना उचित है इसकारण पहिली लघु- करणी और शेषकरणीयोग महती अर्थात् बड़ीकरणी कल्पना की जाती है इससे 'मूलेथ बही करणी तयोर्या-' इत्यादि सूत्र उपपन्न हुआ | प्रथमवर्गस्य मूलार्थ न्यासः । रु १० क २४ क ४० क ६० ।