पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/२८

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खषड्डिघम् । इत्यानयने गोलसंधौ ययभावापत्ति: स्यात् । तत्र तु गोलज- रीत्या लम्बज्यासमाना यष्टिरायातीति विस्तर उपपतीन्दुशेखरे द्रष्टव्यः । खेनेति भजनप्रकारे फलमाह - खहारो भवेदिति खेन भक्तो राशिः खहारो भवेत् । वं शून्थं हारश्छेदो यस्य स खहारो अनन्त इत्यर्थः ॥ ५ ॥ - शून्य के गुणन, भजन, वर्ग और वर्गमूल का प्रकार - जैसा शून्य का योग और अन्तर दो प्रकार का होता है वैसाही गुएन. और भजन भी दो प्रकार का है, वर्ग, वर्गमूल घन और घनमूल ये एकही प्रकार के हैं क्योंकि इनके करने में दूसरी संख्या की अपेक्षा नहीं पड़ती। गुणन में शून्य को किसी राशि से गुण दो अथवा किसी राशि को शून्य गुण दो ती भी गुणनफल शून्यही होगा। भागहार में इतना विशेष है कि - शून्य में किसी राशि का भागदेने से फल शून्यही मिलता है पर शून्य का किसी राशि में भागदेने से वह राशि खहर अर्थात् उसके नीचे शून्य छेद होता है ।। उपपत्ति- अङ्क के अभाव में उस स्थान को पूर्णता के वास्ते शूम्य० यह चिह्न विशेष लिखते हैं । गुणक यह आवर्तक है क्योंकि गुणकतुल्य गुण्य की आवृत्ति करने से गुणनफल होता है इस कारण गुराय के भाव से गुणन- फल का भी अभाव सिद्धहुआ। इसी प्रकार भाज्य के ह्रासबश से लब्धि का भी ह्रास होता है जब कि भाज्य शून्य है तो लब्धि व्यवश्य ही शून्य होगी। इसी प्रकार जैसा जैसा भाजक का ह्रास होगा वैसाही की वृद्धि होगी जब कि भाजक का परम ह्रास होगा उस दशा में लब्धि की परमवृद्धि होगी इसी हेतु लब्धि की अनन्तला कहा है, शेष वासना स्पष्ट है, इससे 'वधादौ वियत्- --' इस सूत्र की उपपत्ति स्पष्ट प्रतीत होती है ॥ ५ ॥ उदाहरणम्- - दिघ्नं त्रित्वं खडतं त्रयं च शून्यस्य वर्ग वद मे पदं च ॥ ५ ॥