पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/२४

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खषडिघम् । खसंकलनव्यवकलने करणसूत्रं वृत्तार्धम् - खयोगे बियोंगे धनएं तथैव च्युतं शून्यतस्तद्विपर्यासमेति ॥ श्रय शून्यस्य संकलनव्यवकलने भुजंगप्रयातपूर्वार्धना-ख- योग इति | रूपस्य यावत्ताबदादिवर्णस्य करण्या वा शून्येन सह. योगे वियोगे वा कर्त्तव्ये रूपादिकं धनमुखं तथैव भवेत् । योगवि योगकृतो न करिवद्विशेष इत्यर्थः । अञ खयोगो द्विविधः । सेन योगो रूपादेः खयोग इत्येकः | खस्य योगो रूपादिना खयोग इति द्वितीयः । एवं वियोगोपि द्विविधः | खेन वियोग इत्येकः । खाद्वियोग इति द्वितीयः । तत्र द्विविधेऽपि खयोगे पूर्वस्मिन्नखसि - योगे च रूपादिकं धनमूसं वा यथास्थितमेव | खाद्वियोगे विशेष- याहू - च्युतमिति । धनमृणं वा रूपादिकं शून्यतः शोषितं सद्वि- पर्यास वैपरीत्यमेति प्रामोति । वनं शून्यतश्च्युतमृणमृणं चेद्धनं भवतीत्यर्थः ।। शून्य के जोड़ने और घटाने का प्रकार ---- सून्य को किसी राशि में जोड़ दो, वा शून्य में किसी राशि को जोड़ दो और शून्य को किसी राशि में घटा दो तो भी धन या ऋण का विष- यस अर्थात् हेर फेर नहीं होता। जो शून्य में किसी राशि को घटा दो तो वह धन होवे तो ऋण और ऋण होवे तो धन हो जाता है || उपपत्ति- जो योग करने की संख्या केवल दो हो तो उनमें से जिस संख्या में दूसरी संख्या जोड़नी होगी उस पहिली संख्या को योज्य और दूसरी को योजक कहते हैं । योज्य और योजक के बीच में योजक का जितना ह्रास होगा उतनाही योगज फल अर्थात् जोड़ का भी ह्रास होगा इस प्रकार योजक के तुल्य योजक का हास होने से योगज फल में भी योजकतुल्य हास होगा। उस दशा में योज्य के समान योगज फल सिद्ध होगा। और