पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/२२२

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२१५ चक्रवालम् 134 थकृत वर्गरूपयां पदानयने उपायान्तरमनुष्टुभाह-इष्टभक्त इति । उद्दिष्टक्षेप इष्टेन भक्तः सन् द्विधा स्थाप्यः स एकत्र इष्टेनोनः, अपर इष्टेन सहितः, उभयत्रापि दलीकृतोऽर्धितः । गुणमूलहृतः । प्रकृतिमूलहृत इत्यर्थः | क्रमाद्हस्वज्येष्ठपदे स्तः || वर्गरूप प्रकृति में पद लानेका प्रकार- उद्दिष्ट क्षेप में इष्ट का भाग देकर उसे दो स्थान में रक्खो और एक स्थान में उसमें इष्ट घटा दो दूसरे स्थान में जोड़दो बाद उनका आधा करो और पहिले स्थान में प्रकृति के मूल का भाग दो वे क्रमसे कनिष्ठ ज्येष्ठ होंगे | उपपत्ति वर्गरूप प्रकृति से गुणा हुआ कनिष्ठ का वर्ग वर्गही रहता है उसका और ज्येष्टवर्ग का अन्तर क्षेप होता है और वह वर्गान्तर के समान है. अब ' वर्गान्तरं राशिवियोगभक्त योगस्ततः श्रोतवदेव राशी इस पाटीस्थ सूत्र अनुसार अन्तर तुल्य इष्ट कल्पना करके उसका क्षेप में भाग देने से योग आवेगा बाद संक्रमण सूत्र से राशि आयेंगे, एक राशि, प्रकृति के मूल से गुणे हुए कनिष्ठ के तुल्य और दूसरा ज्येष्ठ के तुल्य होगा, प्रकृतिमूल से गुणा हुआ कनिष्ठ प्रकृतिमूल के भाग देने से कनिष्ठ होता है, इससे ' इष्टमक्को द्विधा' यह सूत्र उपपन्न हुआ || उदाहरणम् - का कृतिर्नवभिः क्षुण्णा दिपञ्चाशता कृतिः | को वा चतुर्गुणो वर्गस्त्रयस्त्रिंशद्युता कृतिः ॥ ३२ ॥ अत्र प्रथमोदाहरणे क्षेपः ५२ | द्विनेष्टेन हतो द्विष्ठ इष्टोनाढ्यो दलीकृतो जातः १२ | १४ | अनयो-