पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/२१६

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

चक्रवालम् 1 २०६ से गुणकर उस में ४ बटा दिया तो र शेष रहा, इसका मूल ३ ज्येष्ठ पद हुआ | इनका क्रमसे न्यास । क ज्ये ३ क्षे ' इष्टवर्गहृतः----' इसके अनुसार इष्ट २ कल्पना करने से रूपशुद्धि में पद हुए कज्येक्षे १ अथवा कनिष्ट १ के वर्ग १ को प्रकृति १३ से गुणकर उसमें १ घटा दिया तो ४ शेष रहा, इसका मूल २ ज्येष्ठपद हुआ। इनका यथा क्रम न्यास | क ? ज्ये २ क्षे है पूर्वरीति के अनुसार ३ इष्ट मानने से रूपशुद्धि में पद हुए क ज्येक्षे १ इनका 'इस्त्रज्येष्ठदान्' इस रीति के अनुसार कुट्टक के लिये न्यास । हा. रं । यहां भाज्य भाजक और क्षेप में आवेईका अपवर्तन देकर न्यास । भा. १ । क्षे. ३ । 'हरतष्टे धनक्षेपे-' इस रीति से बल्ली हुई o में बाद १ दो राशि हुए, लब्धि के वैषम्य से इन्हें अपने अपने क्षणों शुद्ध किया तो हुए, फिर क्षेपतक्षणलाभ १ को लब्धि में जोड़ देने से लब्धि गुण हुए अब गुण १ के वर्ग १ को प्रकृति १३ में घटा देने से शेप १२ अल्प नहीं रहता इस कारण ऋण १ इष्ट मानकर 'इष्टाहतस्वस्वहरेण युक्ते -' इसके अनुसार तक्षणों १ । २ को ऋण १ से