पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/१९५

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१८८ बीजगणिते- शेष थोड़ार है । उस शेष में पहिले क्षेपका भाग देने से क्षेप होगा पर इतना विशेष है कि जिस अवस्था में गुणवर्ग प्रकृति में घटैगा तो यह क्षेप व्यस्त होगा अर्थात् धन होगा तो ऋण और ऋण होगा तो धन जानाजायगा । और जिस गुणका प्रकृति के साथ अन्तर किया है उस गुणकी लब्धि कनिष्ठ होगा बाद उक्तरीति से कनिष्ठ परसे ज्येष्ठ सिद्ध करो। अनन्तर पहिले साधे हुए कनिष्ठ, ज्येष्ठ और क्षेपको बिगाड़कर इन नये कनिष्ठ, ज्येष्ठ और क्षेप परसे कुक के द्वारा गुण लग्धि लाओ और उन परसे कनिष्ठ, ज्येष्ठ और क्षेप सिद्धकरो | इस भांति असकृत् अर्थात् बार बार किया करो । यों चार, और एक धनक्षेप में अभिन्न कनिष्ठ ज्येष्ठ होंगे। यहां पर उद्दिष्ट ४ यदि संख्या और धनक्षेप उपलक्षण है. इस कारण इष्ट संख्यावाले धनक्षेप अथवा ऋणक्षेप में अभिन्न पद होंगे । और ४ । २ क्षेपोंसे रूपक्षेप होने के लिये भावना करनी चाहिये सो इस प्रकार ---- जिस स्थान में ४ क्षेपहो वहां 'इष्टवर्गहृतः --' इस सूत्र के अनुसार रूप- क्षेप सिद्धकरो और जहांपर २ क्षेपहो वहां तुल्य भावना देकर ४ क्षेप सिद्धकरलो बाद ' इष्टवर्गहृत : ---' इस सूत्र से रूपक्षेप होगा || उपपत्ति -- १ कनिष्ठ और प्रकृत्यून इष्टवर्ग क्षेप कल्पना किया कनिष्ठ = १, क्षेप = प्र १ इव १ कनिष्ठ १ के वर्ग १ को प्रकृति १ से गुणकर उसमें क्षेप प्ररं इत्र जोड़ने से इव १ हुआ, इसका मूल इ १ ज्येष्ठ है, अब इसका ज्ञात कनिष्ठ, ज्येष्ठ और क्षेत्रों के साथ भावना के लिये न्यास | प्र १ । क १ ज्ये १ क्षे ? S यहां चत्राभ्यासों क. इ १ । ज्ये १ । का योग क. इ १ ज्ये १ कनिष्ट हुआ | कनिष्ठों क १ रू १ के घात को प्रकृति से गुणकर उसमें ज्येष्ठाभ्यास ज्ये. रू १ इ १ प्र १ इव