पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/१५५

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बीजगणिते - अभीप्सितक्षेपविशुद्धिगुणिते स्वहारतष्टे च तयोः क्षेपविशुद्ध्यो- गुणाप्ती भवतः । एतदुक्तं भवति - 'मिथो भजेत्तौ दृढभाज्यहारौ-' इत्यादिना फलान्यधोधो निवेश्य तदधः क्षेपस्थाने रूपं निवेश्य अन्ते च निवेश्य '- उपान्तिमेन, स्वोर्ध्वे इते -' इत्यादिना धनक्षेपे ऋणक्षेपे गुणलब्धी पृथक् पृथक् साध्ये क्षेपो यदि धनमस्ति तर्हि धनक्षेपजे गुणाशी अभीप्सितक्षेपेरण गुगनीये, यदि त्वभीप्सितक्षेपः क्षयोऽस्ति तर्हि ऋणक्षेपजे गुणाती 'अभीप्सितेन ऋणक्षेपेण गुणनीये | पश्चात्स्वस्वहारेण पूर्व- वक्ष्येते उदिष्टगुणाप्ती स्तः ।। स्थिर कुटुक का प्रकार - धनक्षेप को ऋणक्षेप एक कल्पना करके उन ( धन ऋणक्षेप ) पर से जो गुण लब्धि सिद्ध होती हैं उन्हें अभिमत धन अथवा ऋणक्षेप से गुण . दो और अपने अपने हार से तष्टित करो तो वे धन ऋणक्षेप में गुण लब्धि

होंगी, तात्पर्य यह है कि 'मिथो भजेत्तौ दृढभाज्यहारौ-----

-~-' इस सूत्र के अनुसार जो फल सिद्ध हों उन्हें एक के नीचे एक इस रीति से स्थापन करो और क्षेप के स्थान में १ लिखकर उसके नाचे शून्य रक्खो फिर ' उ- पान्तिमेन, स्त्रोर्चे ह्तेऽन्त्येन युते तदन्त्यं त्यजेन्मुहुः स्यादिति राशियुग्मम्' इस क्रिया के अनुसार दो राशि सिद्ध करो और उन पर से गुण लब्धि लावे अथवा ऋणक्षेप में होंगी बाद उन्हें अपने इष्टक्षेप से गुण दो अर्थात् क्षेप धन हो तो धनक्षेपोत्पन्न गुण लब्धि को धनक्षेत्र से दो और ऋण हो तो ऋणपोन गुण लब्धि को ऋणक्षेप से गुणदों, पश्चात् उन्हें अपने अपने हर से तष्टितकरो तो वे उद्दिष्ट गुण लब्धिहोंगी || उपपत्ति--- यदि रूपक्षेप में उद्दिष्ट गुण लब्धि आती हैं तो इष्टक्षेप में क्या इस ( १ प्रकार अनुपात से विशुद्धिं यह सूत्र उपपन्न हुआ || 4