पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/१४८

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कुहकः । + यहां लब्धि व्यभिचरित होती है क्योंकि ११ से भाज्य ६० को गुणने से ६६० हुए इन में क्षेप ३ जोड़ने से ६५७ हुए अब इनमें हार १३ का भाग देने से ५० लब्धि आई और शेष ७ रहा, न कहो यहांपर शेष रहने से गुण भी व्यभिचरित होगा तो लब्धिही में व्यभिचार क्यों कहा? सत्य है, लब्धि का यहां उपलक्षण है इसलिये गुण का भी व्यभिचार सिद्ध हुआ | लब्धि में व्यभिचार का निश्चय होने से ये जो लब्धि गुण आाये थे उनको ज्यों का त्यों रक्खा, अब इस में अलाप मिलता है जैसा -- भाज्य ६० को गुण २ से गुणने से १२० हुआ। इस में क्षेप ३ जोड़ने से ११७ हुआ इसमें हार १३ का भाग देने से ऋण लब्धि है आई । यहांपर आलाप तो कथंचित् मिलगया परंतु ' एवं तदैवात्र यदा स- मास्ताः स्युर्लब्वयश्चेद्विषमास्तदानीम् | यथा गतौ लब्धिगुणौ विशोध्यौ स्वतक्षाच्छेषमितौ तु तौ स्त: ' इस सिद्धान्त से विरोध आता है क्योंकि लब्धि विषम आई हैं । और ऐसा मानने से भाज्य, भाजक, क्षेप, इनके धन होने में और लब्धियों के विषम होने में व्यभिचार ज्यों का त्यों बन रहता है। देखो इसी उदाहरण में उक्तरीति से लब्धि गुण सिद्ध हुए ई अब यहां आलाप मिलाता है. है-भाज्य ६० धनको गुण २ से गुणने से १२० हुआ इसमें क्षेप ३ जोड़ने से १२३ हुआ इस में हार १३ का भाग देने से निःशेषता नहीं होती । यदि यह कहो कि धनात्मक विषम लब्धि में अपने अपने क्षणों में शोधनका आवश्यक है ऋणात्मक में नहीं, तो ऐसा भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि उक्त दोषका परिहार नहीं होता, जैसा -- इसी उदाहरण में हारमात्र के ऋण कल्पना करने से लब्धि गुण हुएई अब भाज्य ६० को गुण २ से गुणने से १२० हुआ इस में क्षेत्र ३ जोड़ने से १२३ हुआ अब इस में हार १३ का भाग देने से निःशे- पता नहीं होती । और समलब्धि में भी व्यभिचार होता है जैसा - -वक्ष्यमाण उदाहरण के