पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/१४६

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कुट्टकः । को ६ इन तक्षणों में शुद्ध करने से ऋभाज्य ऋणक्षेप में लब्धि गुण हुए है। यहां पर भी हार भाज्य के भिन्न जातीय होनेसे लब्धि ५१ को ऋण जानो । अब यहां इस बात पर ध्यान दो कि --- प्रथम भाग्य भाजक और क्षेप इनको धन कल्पना करके लब्धि गुण सिद्धकरो, यदि उद्दिष्ट मांज्य क्षेप धन अथवा ऋण हों तो सिद्ध किये हुए लब्धि गुणों परसेही उद्दिष्ट की सिद्धि होगी, यदि भाज्य क्षेत्रों के बीच में कोई एक धन और दूसरा ऋण हो तो यथागत लब्धि गुणों को अपने अपने क्षण में शुद्धकरो उनसे उद्दिष्ट की सिद्धि होगी, और हारके धन होने से कुक में कुछ विशेष न होगा उक्त रीति से गुण लब्धि धनही होंगी और भाग्य भाजकों के बीच में यदि कोई एक ऋणहो तो लब्धिमात्र को ऋण जानना चाहिये क्योंकि , ● भाग हारेऽपि चैवं निरुक्तम् ' ऐसा कहा है | इस भांति एकबार शोधन करने से उद्दिष्ट की सिद्धि होगी, और भाज्य ऋणहो तो अपने अपने त क्षण से एकबार शोधनकरो क्षेप ऋणगतो तो दोबार, यह जो कहा है सो मन्दजनों के बोध के अर्थ, इसी बात को आचार्य ने भी कहा है " धन- भाज्योद्भवे तद्वद्भवेतामृण भाज्यजे' इति मन्दावबोधार्थ मोक्तम् । अन्यथा 'योगजे तक्षणाच्छुद्रे---- इत्यादिनैव तत्सिद्धेः । यतो धनयोगो वियोग एव । अत एव भाज्यभाजकक्षेपाणां वनत्वमेव प्रकल्प्य गुणाप्ती साध्ये | ते योगजे भवतः । ते स्वतक्षणाभ्यां शुद्धे बियोगजे कार्ये " इत्यादि वाक्यों से। इन वाक्यों का अर्थ उक्तप्राय है तो भी सुगमता के लिये फिर लिखते हैं-- इस भांति धन भाज्य संबन्धी लब्धि गुण ऋण भाज्य में होते हैं यह मैंने मन्दजनों के बोधके लिये कहा है नहीं तो उक्त बात की 'योगजे तक्षणा- - इसी सूत्रसे सिद्धि होती है क्योंकि वन और ऋण राशिका योग , ही अन्तर होता है इसीलिये भाज्य भाजक क्षेपोंको धन कल्पना करके उक्त ,