पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/१३२

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१२५ स्वस्य हर: स्वस्वहर इष्टेन आहतः इष्टाहतः, इष्टाहतश्चासौ स्वस्वहरश्च इष्टाहतस्वस्वहरः, तेन इष्टाहतस्वस्वहरे क् गुणलब्धी बहुधा भवेताम् । इष्टेन गुणितं हरं गुणे प्रक्षिपेत्, तेनै- वेष्टेन गुणितं भाज्यं लब्धौ च प्रक्षिपेत् । एवमेते गुणासी इष्टकल्प- नवशादनेकथा भवत इत्यर्थः ॥ एक गुगलब्धि परसे अनेक गुणलब्धि लाने का प्रकार - उक्त प्रकार से सिद्ध किये हुए जो लब्धि गुण उन्हें इष्टसे गुणे हुए अपने अपने हर से युक्त करो तो अनेक लब्धि गुण होंगे अर्थात् इष्ट गुणित हरको गुण में जोड़ दो और उसी इष्ट से गुणे हुए भाज्य को लब्धि में जोड़दो यों इष्ट कल्पना करने से एकही गुणलब्धि पर से अनेक गुणलब्धि सिद्ध होंगे ॥ उपपत्ति- गुणगुणित क्षेपयुक्त भाज्य और हारलंब्धि का घात ये आपस में स- मान होते हैं— गु. भा १ क्षे १=हा. ल १ ये इष्टगुणित हार इ. हा १ जोड़ देने से भी समान ही रहे-गु. भा. १ क्षे १ इ. हा १ = हा. ल १ इ. हा १ दूसरे पक्ष में हारका भाग देने से इष्टाङ्क और लब्धि की योगरूप लब्धि आती हैं। इससे 'क्षेपतक्षणलामाढ्या लब्धिः -- यह उपपन्न हुआ क्योंकि क्षेप तष्टित करने से जो फल ( लब्धि ) आता है उसी को इष्ट कल्पना किया है । इसी भांति पहिले पक्ष में दूसरे खण्डको हर से तष्टित किये हुए धन क्षेप के तुल्य कल्पना किया और तीसरा खण्ड इष्ट और हार का घात है वह क्षेपको तष्टित करने से जो फल मिला है उससे गुण हुआ हार है इसलिये उन दोनों के योगको क्षे १ इ. हा १ मुख्य क्षेप कल्पना किया,