पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/१३१

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+ १२४ वीजगणिते- न्तरमपि । तथाहि — भाज्यतक्षणलाभो गुणेन गुरणनीयः पश्चात्क्षेप- तक्षणलाभेन संस्कार्य:, संस्कृतेन तेन गणितागता लब्धि: सं- स्कार्या साधर्भवतीति गौरवादाचार्यैरिदं नोक्तम् ॥ दूसरा विशेष - जहांपर भाग्य क्षेप, हार से अधिक हों वहां पूर्वप्रकार सेवा क्षेप- मात्र को तष्ठित कर गुण लब्धि सिद्ध करो | अथवा भाज्य क्षेपों को हार से तष्टित करो और उन तष्ट भाज्य क्षेप पर से कही हुई रीति के अनुसार गुण लब्धि सिद्धकरो तो गुण वास्तव होगा परंतु लब्धि वास्तव न होगी, किंतु गुणगुणित क्षेपयुक्त भाज्य में हारका भाग देनेसे जो लब्धि मिलेगी वह वास्तव होगी || क्षेपाभावोऽथ वा यत्र क्षेपः शुध्येद्धरोद्धृतः ॥ ज्ञेयः शून्यं गुणस्तत्र क्षेपो हारहतः फलम् ॥ ३५ ॥ क्षेपाभाव एकादिगुणहरसमे वा क्षेपेऽनुष्टुभा विशेषमाह - क्षेषाभाव इति । यत्रोदाहरणे क्षेपस्थ अभाव राहित्यं स्यात् अ थवा क्षेपो हरेण उद्धृतो भक्तः शुध्येत् निःशेषतां गच्छेत् तत्र शून्यं गुणः हारहृतः क्षेपः फलं लब्धिरित्यर्थः ।। A दूसरा विशेष--- जिस उदाहरण में क्षेप न हो अथवा हारके भागदेने से क्षेप निःशेष होता हो वहां शून्य गुण होगा और क्षेप में हार का भागदेने से जो फल मिलेगा वही लब्धि होगी। ईष्टाहतस्वस्वहरेण युक्ते.. ते वा भवेतां बहुधा गुणाप्ती | गुलब्योकत्वमुपजातिका पूर्वार्धनाह - इष्टेति । स्वस्य ( १ ) अस्यैव पद्यस्योत्तर मर्धम् 'क्षेपं विशुद्धिं परिकल्परूपं पृथक् पृथग्ये गुणकारलब्धी इत्य वर्तते ।