पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/१३०

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कुट्टकः । १२३ 'गुणलब्ध्योः समं ग्राह्यं -' इत्यादिनैव तक्षणफलं ब्राह्ममिति । यथा - भाज्य: ३ | हारः ४ | क्षेपः ७ | एवंविधस्थले फलयोर्यथा वैषम्यं न भवति तथा प्रकारान्तरं न दृश्यते || दूसरा विशेष---- जिस स्थान में क्षेप हार से अधिक हो वहां हार से तष्टित किये हुए क्षेपको क्षेप कल्पना करके उत्तरीति से गुण लब्धि सिद्ध करो, वहां गुण जो आया है वही होगा और लब्धि, क्षेपके तष्टित करने में जो फल आया है उससे जुड़ी हुई वास्तव होगी, इसभांति धनक्षेप में जानो । ऋणक्षेप में तो क्षेपको हर से तष्टित करने के बाद 'योगजे तक्षणाद्धे गुणती स्तो वियोगजे' इस रीति के अनुसार गुण लब्धि सिद्ध करो वहां गुण तो यही वास्तव होगा पर लब्धि, क्षेपके तष्टित करने से जो फल आया है उससे ऊन हुई वास्तव होगी। जहां कहीं क्षेप भाज्य से न्यून न हो और हार से न्यून हो वहां गुण लब्धिके तटित करने में कहीं फलका वैषम्य (कम- ज्यादापन ) होगा तो इस विधिक प्रवृत्ति न होने से 'गुणलब्ध्योः समं ग्राह्यं धीमता तक्षणे फलम्' इस सूत्र के अनुसार फल लेना चाहिये । अथवा भागहारेण तष्टयोः क्षेपभाज्ययोः || गुणः प्राग्वत्ततो लब्धिर्भाज्यात युतो कृतात् ॥ ३४ ॥ श्रथ भाज्येऽपि हराधिकेऽनुष्टुमा विशेषमाह-अथवेति । यत्र भाज्यक्षेपौ हरादधिको तत्र पूर्ववहा क्षेपमात्रतक्षणेन वा गुणाशी साध्ये | अथवा भाज्यक्षेपो द्वावपि हरेण तक्ष्यौ तष्टयोः क्षेपमा- ज्ययोः माग्वदेव गुणाप्ती साध्ये तत्र गुण एवं ग्राह्यो न लब्धिः | कथं तर्हि लब्धिरवगन्तव्येति तदाह - भाज्याद्रतयुतोद्धृतादिति । हृतश्चासौ श्रुतश्च हतयुतः, हतयुतश्चासाबुद्धृतश्चेति हतयुवोद्ध- तस्तस्मात् । गुणेन्द्र गुणितात्क्षेपेण युताद्धानकेन भक्कादुद्दिष्टाद्धा- ज्यादा लब्धिर्भवति सा शेयेत्यर्थ: । अस्यत्र लब्धिज्ञाने प्रकारा