पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/१२१

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११४ ( १ ) १४२ + ३१ ३ बीजगणिते- क्रिया का सारांश | व २ ल ११७=६६+२१ २ गु ४८ ( ३ ) २७+४ । ३ ₹ (२) ६२ + राई व. ल २१-१८+३२ ब. (४) = + ११३ ३ ल ६ চ নম হেত া O २ ल ४८ = ४२+६३ च. इसभांति बारबार क्रिया करने से पहिले भाज्यहार के संबन्धी लब्धि गुण यों होते हैं प्रथम ऋणक्षेप में चौथे भाज्यहार से उत्पन्न लब्धि गुण; फिर धनक्षेप में तीसरे भाज्यहार से उत्पन्न लब्धि गुण, फिर ऋणक्षेप में दूसरे भाज्यहार से उत्पन्न लब्धि गुण, फिर धनक्षेप में पहिले भाज्य- हार से उत्पन्न लब्धि गुण होते इससे स्पष्ट है कि भाज्यहारों के परस्पर भाग देने से जो लब्धि विष्म हो तो लब्धि गु ऋण में और सम हों तो धनक्षेप में होते हैं। भाज्य को हारतुल्य मुख से गुप कर हार का भाग देने से भाज्यतुल्य लब्धि आती है तो हास्तुल्य गुरू की वृद्धि होने से भाज्यतुल्य लब्धि बढैगी और दो ऋदि संख्या से गु- णित हारतुल्य गुण की वृद्धि होने से दो आदि संख्या से गुणित भाग्य- तुल बढ़ेगी इससे 'इष्टाहतस्वस्वहरेण युक्त ते चा भवेतां बहुधा गुणाप्ती' यह वक्ष्यमाण सूत्र उपपन्न होता है। और इसी रीति से हारके समान गुणक का ह्रास होने से भाज्य के समान लब्धि में हासहोता है इससे 'गुलमोः समं प्राह्यं धीमता तक्षणे फलम्' यह और 'ऊर्ध्वो